हैरान हो भी क्यों न जब अनुभूति अपनी आख्या बांच रही थी तो आत्मा के प्रवास से जुड़ी प्रवृष्टियाँ गायब थीं ,संभवतः यह पहली बार नहीं था । यह घटाव सतत् प्रक्रिया से गुजरते हुये इस स्थिति में हो चला कि अब ध्यान जाने का कारण खाली स्थान जैसा कुछ था।
ध्यान दें तो प्रायोगिक स्वभाव में अनुभूति का दोष भी नहीं ,कारण यह कहा जा सकता है आत्मा के प्रवास का प्राथमिकता से हटने का कारण अनुभूति स्वयं नहीं वल्कि वह तृतीयक कर्ता हैं जिन्हे इस ध्येय के साथ आत्मा धारण करती है कि वह अंतिम लक्ष्य को साध सके ,जी हाँ वही कर्ता जिन्हे शरीर कहते हैं।
कारक आत्मा को कितना प्रभावित कर सकते हैं यह उसी तृतीयक कर्ता पर निर्भर करता है जिसके संज्ञा ,संस्कार ,वेदना का निर्धारण इसी मोहपाश से छन के निर्धारित होने है। तृतीयक मैं इसलिये कह रही क्योकि प्राथमिक तो स्वयं नियंता है और द्वितीयक उसी का दिव्य अंश हो न हो लक्ष्य हेतु पृथक रुप में स्वयं आत्मा और तृतीयक वही शरीर।
ख़ैर सभी समझदार हैं। ऐसा ही होता है बहुत से विषयों में भी जब अनुभूति अपनी प्रविष्टियां बांचते जा रही हो और नियति अचानक कुछ गायब सा महसूस करे तो बहुत बार नियति पर न चेताने का दोष भी मढ़ा जाता है लेकिन यकीन मानिये कि नियति चेताती है और अनसुनी होने का दुःख भी झेलती है फिर भी वह हैरान होती है क्योंकि उसे सचमुच फिक्र है।
जीवन के सफर में हमें बहुत बार नियति जैसा होना पड़ता है बाकि अनुभूति तो शाश्वत है सार्वभौमिक है ,और नियति तो नियंता का ही नियम है।
अनुभूति फिर मथेगी और नियति फिर चेतायेगी संभावना दोनो है कि प्रविष्टियों को उनका स्थान मिले भी और न भी मिले ,यहीं हमारे योग साधने की परीक्षा निश्चित है बाकि होइहें वही जो राम रचि राखा।
जो काट्य है वह भी नियति तक जो अकाट्य है वह।
सर्वे भवंतु सुखिनः।
आकृति विज्ञा 'अर्पण'