करमा नहीं,यह करम पर्व है-गुरुचरण महतो


अभी हाल ही में करम पूजा पार हुआ है परंतु मैंने अधिकतर लोगों से करमा पूजा की शुभकामनाएं कहते सुनते देखा। इस दौरान मुझे बहुतों ने करमा पूजा के ऊपर कविता या गीत लिखने भी बोला पर मुझसे नहीं हो पाया। हां तो जिस चीज का कोई अस्तित्व ही नहीं है उस पर आप कैसे कुछ रच सकते हैं? 


प्रिय साथियों,करम पर्व का सीधा संबंध करम पेड़ से है,इस पेड़ की डाली से है। थोड़ी विस्तार में जाएं तो यह पर्व किसानों से और पूर्ण विस्तार में इसका संबंध स्वयं प्रकृति से है। प्रकृति पूजक और मुख्यत: धान की खेती पर निर्भर रहने वाले आदिवासी बहुल राज्यों(झारखंड,बिहार,असम,उड़ीसा,पश्चिम बंगाल,छत्तीसगढ़ और पूर्वी मध्य प्रदेश)में मनाए जाने वाली हर एक पर्व व त्यौहार धान के फसल चक्र पर आधारित हैं तथा दोनों एक दूसरे के साथ बहुत ही घनिष्ठता के साथ जुड़े हुए हैं। चाहे वो करम पूजा,सरहुल हो या जितिया हो। और ऐसे विशेष पर्वों में आम,महुआ,सखुवा,करम,कतारी आदि पेड़ों की पूजा भी की जाती है। हमारे पुराणों में भी लिखा गया है वनस्पत्यै नमः।


झारखंडी मूल संस्कृति के उपासक व झुमूर कवि गुरुचरण महतो ने कहा कि धान रोपाई के बाद बाकी बचे हुए असिंचित जगहों,जहां धान का रोपा जाना असंभव है,खाली ना रहे को ध्यान में रखते हुए करम की डाली गाड़ी जाती है। करम की डाली गाड़ते वक्त इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि यह डाली जितना पतला हो उतना अच्छा। डाली बच गया मतलब जमीन अभी भी उर्वर है। ठीक इसी तरह किसान परिवारों में बचे पिछले साल के दलहनों(चना,उड़द,कुलथी इत्यादि)की जांच पड़ताल भी इस असिंचित जमीन की मिट्टी में की जाती है। भाद्र मास के शुक्ल पक्ष एकादशी में मनाए जाने वाली इस लोकप्रिय करम पूजा के दौरान किसान समुदाय के लोग इस असिंचित मिट्टी को बांस से बने विशेष टोकरियों में लेकर अगले 6-7 दिनों के लिए उसमें दलहन के बीज अंकुरित होने तक डाल देते हैं। झारखंडी समाज-संस्कृति के युवा कवि व गीतकार गुरुचरण महतो आगे बताते हैं कि अगर आप पुराने क्षेत्रीय गीतों को ध्यान दें तो उसमें कहीं भी करमा शब्द का उल्लेख नहीं मिलेगा।


अंग्रेजी भाषा के वैश्वीकरण के चलते आज करम का करमा होना ठीक वैसे ही है जैसे राम का रामा,धर्म का धर्मा,नवोदय का नवोदया,निर्वाण का निर्वाणा,काम का कामा हो जाना हैं। हमारी समाज में,समाज के लोगों द्वारा ही गलत शब्दों के स्वीकृति और प्रचार देख श्री महतो ने खेद जाहिर व्यक्त किया है कि कहीं आने वाले दिनों में मकर पर्व को मकरा,ईंद पर्व को ईंदा,झुमूर गान को झुमूरा ना बोल दिया जाए। 


बिना पूर्ण ज्ञान के ना केवल हम बाहरी आडंबरयुक्त,बेबुनियाद और मनगढ़ंत संस्कारों को अपनाते जा रहे हैं बल्कि अपने मूल संस्कृति और मान्यताओं से दूर होते और इन्हें खोते भी जा रहे हैं। और कमाल की बात है कि हम लोग फिर भी अंधे-बहरे बने हुए हैं।


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गुरुचरण महतो,जमशेदपुर।


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