नदिया की धारा है जीवन की कश्ती
कभी रेत उड़ती कभी जल की मस्ती
कभी मद में करती है विद्ध्वंश सबका
कभी पानी की बूंद को है तरसती ।
सुख दुख भी जीवन में है आते जाते
सुख में नहीं हम हैं भूले समाते
लगता है हमको हमीं सर्वेसर्वा
प्रभु को भूलाकर हैं सबको सताते ।
दुख की घड़ी में है सब याद आते
अपनों परायों को है आजमाते
मंदिर हो मस्जिद हो गुरुद्वारा चर्च
सभी दर पर जाकर हम सर को झुकाते।
संघर्षों में जो नहीं हार माने
एकाग्र हो लक्ष्य को जो है ठाने
मिलती उसे ही है मंजिल यहां
सुख-दुख को तो है सदा आने-जाने ।
नश्वर है संसार सबको है जाना
किसी का नहीं है यहां पर ठिकाना
मद मोह ईर्ष्या का परित्याग कर
सदा प्रेम से सबसे रिश्ते निभाना ।
के.एम.त्रिपाठी "कृष्णा"
(स्वरचित)