तख़य्युल मेरा अपना है निगाही मीर-ओ-ग़ालिब की।
कलम है दौर-ए-'मन' की तो सियाही मीर-ओ-ग़ालिब की।।
मुहब्बत ने इनायत की अता किस की इबादत को।
मेरा है तजरुबा अपना गवाही मीर-ओ-ग़ालिब की।।
सजाकर महफ़िलें अक़्सर रदीफ़-ओ-क़ाफ़िया लेकर।
सुखनवर आज-कल करते तबाही मीर-ओ-ग़ालिब की।।
सबात-ए-अज़्म को खोकर ख़याली तीरगी घेरे।
मिलेगी रौशनी लेना पनाही मीर-ओ-ग़ालिब की।।
बहुत से हैं सुखन के आसमां पर आज भी क़ाबिज़।
मगर क़ायम मुसलसल वाह-वाही मीर-ओ-ग़ालिब की।।
नहीं है इल्म ऊला का, बहर ही का, न सानी का।
चले आए हैं 'मन' पी कर सुराही मीर-ओ-ग़ालिब की।।
मनीष कुमार शुक्ल 'मन'
लखनऊ।
तख़य्युल= कल्पना, ख़्याल
निगाही= नज़रिया
इनायत= उपकार, दया
अता= बख़्शीश, प्रदान करना, दान, प्रदान, पुरस्कार, अतीय, दिया हुआ, दत्त
तजरुबा= अनुभव
सबात-ए-अज़्म= दृढ़ संकल्प की स्थिरता
तीरगी= अन्धेरा
पनाही= संरक्षण, शरण, छाया, आश्रय
मुसलसल= लगातार