साहित्यिक पंडानामा : ८२४


भूपेन्द्र दीक्षित
किसी शायर ने क्या खूब कहा है मित्रों!


"दीप जिस का महल्लात ही में जले


चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले


वो जो साए में हर मस्लहत के पले


ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को


मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता


मैं भी ख़ाइफ़ नहीं तख़्ता-ए-दार से


मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से


क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से"
(हबीब जालिम)
यह है साहित्यकार का तेवर। भयाक्रांत सत्साहित्य नहीं रच सकता।आज दस साहित्यकारों के नाम आम जनता नहीं बता पाएगी। पुराने पचास पूछ लें। कालिदास के माता-पिता कौन थे? भवभूति?बाण भट्ट?
क्या इन्होंने अपने पुरखों का बखान किया? 
आज एक टूटी फूटी कृति रच कर खानदान भर का सिजरा लिख दिया जाता है। खानदान अमर हो जाए।अरे तुम्हारी जगह कूड़ेदान में है।
 हिंदी संस्थान से पुरस्कृत एक पुस्तक देखी।महान लेखक ने अपना वंशवृक्ष छाप रखा था।अपनी नयी पत्नी के साथ खिंचाया बढ़िया फोटो था।इसी बात     पर प्रसन्न होकर महानात्माओं ने उसे पुरस्कृत किया।अब मुंह पीटते रहिए। साहित्य का कबाड़ा ऐसे ही निर्णायकों ने किया है।


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