साहित्यिक पंडानामा-८०४


भूपेन्द्र दीक्षित


अज्ञेय ने लिखा था-
इन्हीं तृण फूस-छप्पर से
ढँके ढुलमुल गँवारू
झोंपड़ों में ही हमारा देश बसता है।
इन्हीं के ढोल-मादल बाँसुरी के
उमगते सुर में
हमारी साधना का रस बरसता है।
इन्हीं के मर्म को अनजान
शहरों की ढँकी लोलुप
विषैली वासना का साँप डँसता है।
इन्हीं में लहरती अल्हड़
अयानी संस्कृति की दुर्दशा पर
सभ्यता का भूत हँसता है।
आज यही सब  खुली आंखों से दिखाई दे रहा है ।अंग्रेजी सभ्यता के पैरों तले हमारी यह ग्रामीण सभ्यता कुचली जा रही है ।गांव के लोग भी उन्हीं बुराइयों में रचे बसे जा रहे हैं ,जिनके लिए हमारा साहित्यिक वर्ग कभी चिंतित था।गांव शहर को मात कर रहे हैं।जब शहर से घबराकर कर गांव जाता हूं,तो देखता हूं,यह तो शहर से भी आगे निकल गया है।
साहित्य भी वह नहीं रहा ।अवधी के नामी गिरामी रचनाकार जब नशे में धुत दिखाई पड़ते हैं,तो मेरे जैसे लोग कविता सुनना छोड़ देते हैं।जब ब्यूटी पार्लर से से संवर कर आई कवयित्री क से कौआ और ख से खरहा सुनाने लगती है और उस पर पुरस्कार बरसने लगते हैं ,तो मीरा और महादेवी की सरस्वती सिर झुका कर मंच के पीछे से पलायन कर जाती है।
 आज के साहित्यकार लंबी जुल्फें रखा कर  मेकअप करके भौंहें मटका कर कमर लचका कर लंबे कुर्ते पहन कर मोबाइल से जब काव्य पाठ करते हैं तो कोठे मात हो जाते हैं ।
ग्रामीण सभ्यता की  खूबसूरती आज कहीं दूर तक दिखाई नहीं देती जो हमारे देश की पहचान हुआ करती थी ।ग्राम्य भाषा आज तिरस्कार का प्रतीक बन गई है और गांव का व्यक्ति भी उसमें बोलना पसंद नहीं करता उससे उसका स्टैंडर्ड गिर जाता है ।
जब हम उसे बताते हैं कि यह तुम्हारी अवधी है ,जिसको विश्व स्तर पर पहचान मिली है ,वहभौंचक्का रह जाता है और उसको यकीन नहीं आता कि हम उसकी भाषा के बारे में बात कर रहे हैं। निश्चय ही हमें हमारी ग्रामीण सभ्यता की ओर  एक दिन लौटना ही होगा पर तब तक देर न हो जाए।


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