लेखन का आरंभ स्वानतः सुखाय होता है। रचनाकार की साहित्यिक अभिव्यक्ति वास्तव में उसका अनुभव यथार्थ होता है। एक लेखक के लिए सचेत, पागलपन की हद तक किताबों से लगाव, होना चाहिए क्योंकि जितना अध्ययन होगा, उतना ही जुनुन पैदा होगा।
साहित्य अनुभव है, सूचना मात्र नहीं और पाठक को इनमें प्रतिभागी बनाने के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए।
केवल क्लिष्ट लिखना, साहित्य नहीं होता और न अनर्थ की तुकबंदी बल्कि जब शब्द तथा अर्थ के मध्य सुंदरता के लिए स्पर्श की होड़ लगी हो तो वहाँ पर साहित्य की सृष्टि होती है।
जिस प्रकार भवन की नींव नीचे से खड़ी हो जाती एवं नीचे की नींव को मजबूत किया जाता और उस नींव पर पूरा भवन खड़ा रहता, उसी प्रकार मानव के विचार साहित्य से मजबूत होते हैं। साहित्य का जातिवाद, भेदभाव जैसी कुरीतियों को समाप्त करने में महत्व पूर्ण योगदान रहा, आगे भी बचा सकते हैं।
साहित्य में पुरातन और नूतन का संघर्ष टकराव की स्थिति पैदा कर देता है लेकिन टकराव के स्थान पर यदि नूतन मूल्यों में हमारी शाश्वत मूल्यों की
परम्परा से साम्य बैठता है तो नूतन मूल्यों को स्वीकार करने में कोई हानि
नहीं है। तात्पर्य है जो समाज का हित करे, वह सद्साहित्य होता है।
रश्मि अग्रवाल वाणी
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