साहित्यिक पंडानामा:७९९


भूपेन्द्र दीक्षित
आजकल भाई लोग नित्य नवीन प्रशस्तिपत्र फेसबुक पर,वाट्सऐप ग्रुपों पर डाल रहे हैं। सम्मान का सावन छाया रहता है।आज सबसे चिंता का विषय यह है कि साहित्यिक कार्यक्रमों में जिन को सम्मानित करने के लिए बुलाया जाता है या जो वक्तृत्व की श्रंखला में अपने विचार रखने के लिए बुलाए जाते हैं ,उनके अतिरिक्त आम श्रोता दुर्लभ हो गए हैं। अक्सर यह देखने में आता है कि कवि या साहित्यकार का परिवार ही श्रोताओं की भीड़ बढ़ाता है। यह स्थिति साहित्यकारों ने स्वयं उत्पन्न की है ।
 इनमें इतनी गुटबाजी, होड़, जलन, ईर्ष्या भरी हुई है कि तेरी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसे की तर्ज पर साहित्यकार एक दूसरे से लड़ते रहते हैं ,एक दूसरे का कद छोटा करने की कोशिश किया करते हैं और भूले भटके अगर कोई साधारण व्यक्ति इस क्षेत्र में कदम बढ़ाने की कोशिश करे,तो या तो ये उसको अपनी छत्रछाया में लेने का प्रयास करते हैं ,अगर वह छत्रछाया में ना आए ,तो उसका नाम ही मिटा देने का प्रयास करते हैं और इस सब छीछालेदर में साहित्य में इतनी गंदगी फैलाते हैं कि साहित्य का नाम ही वहां शेष नहीं रह जाता।
 आखिर आपको कितने सम्मान चाहिए ?आप कितने अपमानित हैं कि नित्य सम्मानित हों, तो वह अपमान दूर हो मुझे तो यह नहीं समझ में आता  कि आखिर इतने वरिष्ठ लोग इस चूहा दौड़ में शामिल रहते हैं ।आखिर कालिदास और निराला को कितने सम्मान मिले थे? कितने मानपत्र उनके बैठके में सजे हुए थे  या कहें आज की भाषा में -ड्राइंग रूम में सजे हुए थे।
 उनके काल में और भी बहुत सारे लोग होंगे ,लेकिन कालिदास ,भवभूति, बाणभट्ट ,निराला और धूमिल जैसा कद कितनों का हुआ?इस चूहा दौड़ से बाज आ जाओ ,मित्रों! साहित्य का सम्मान बचाओ। अन्यथा स्थिति यही होगी कि वक्ता भी साहित्यकार होगा और श्रोता भी साहित्यकार होगा और आम जनता इस परिदृश्य में कहीं नहीं होगी।


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