साहित्यिक पंडानामा:७८७


भूपेन्द्र दीक्षित


आज का पंडा नामा साहित्यिक कढैयों को समर्पित है। अपने समस्त साहित्यिक जीवन में मैंने देखा कि साधारणतःकोई भी कवि दूसरे कवि को देखकर नहीं प्रसन्न होता और कोई भी लेखक दूसरे लेखक की कृति को देखकर प्रसन्न नहीं होता ।अपवाद छोड़ दें तो।तुलसीदास जब इस वेदना से गुजरे ,तो उन्होंने लिखा -निज कवित्त केहि लाग न नीका।सरस होय अथवा अति फीका।।


 यह अवश्य उन्होंने अपनी आलोचना-प्रत्यालोचनाओं से तंग आकर लिखा होगा ।बाबा तुलसी के बहुत आलोचक होंगे ।इतने बड़े साहित्यकार थे ,तो साधारण लोगों की बात ही क्या।
 कुछ महान विद्वान पीढ़ियों के साहित्यकार होते हैं ।उनके परबाबा भी साहित्यकार होते हैं ,फिर बाबा साहित्यकार होते हैं ,उसके बाद पिताजी साहित्यकार होते हैं और उसके बाद स्वयं महानतम साहित्यकार होते हैं, तो वही वाली कहावत चरितार्थ होती है कि बाप लालटेन है और बेटा ट्यूबलाइट हो गया ।
जब वे अपने सामने बैठे साहित्यकारों को देखते हैं, तो  उनका चेहरा विकृत हो जाता है ।कमर तिरछी हो जाती है। थूक निकलने लगता है और वह मेज पीट-पीटकर कहते हैं- मेरी सुनो !मेरी सुनो !
जब कोई सुनता नहीं ,तो कहते हैं, मैं पीढ़ियों का साहित्यकार हूं। मेरी सुनो। मैं ही हूं ।जो हूं एको अहम द्वितीयो नास्ति ।साहित्य मुझ से शुरू है और मुझ पर खत्म है ।तुम सब कीड़ों मकोड़ों! मेरी वंदना करो और वंदना करके अपने अपने घर जाओ ।तुम सब इस लायक नहीं हो कि अपने को कभी कहो  कि कवि या लेखक  हो। जो हूं वह मैं हूं। एको अहम् द्वितीयो नास्ति ,क्योंकि मेरा बाप भी बहुत बढ़िया चुटकुले सुनाता था और मैं भी बहुत बढ़िया चुटकुले सुनाता हूं ।वह भी नौटंकीबाज था, मैं भी नौटंकीबाज हूं और बीच में कुछ भी नहीं ।अब भविष्य में मेरी आगे आने वाली पीढ़ियां भी यही करेंगी ,इसलिए जो  परिदृश्य  है ,वह मेरे ही परिवार पर खत्म हो जाता है ,तो इस साहित्यिक वंशवाद पर मैं हंसूंं कि रोऊं,या इमली के पत्तों से इस कढैया को चमका दूं ?मैं विचार कर रहा हूं।
वे कहते हैं- हा हा हा यह आ गया कीड़ा मकोड़ा। न इस का बाप साहित्यकार था ।न इस का बाबा साहित्यकार था और यह मुझ से मुकाबला करने चला है और साहित्यिक कढैया इतनी काली हो जाती है कि सब कुछ उसमें से काला ही काला उबलने लगता है, जिसके छींटे कोई यहां पड़ा कोई वहां पड़ा,इस दिल के टुकड़े हजार हुए की तर्ज पर सभी के दामन पर पड़ते हैं ।बुद्धिमान लोग सुनते रह जाते हैं और कुछ मूर्ख अहा हा करते हैं ,कुछ हाय हाय करते हैं ,कुछ  आह भरते हैं और साहित्यकार अपने को बहुत विद्वान समझता है ।उसका कहना है -लिखी होंगी तुमने बहुत सारी किताबें ,लेकिन मेरी तो एक पंक्ति ही काफी है साहित्य का झंडा उखाड़ फेंकने के लिए ।उखाड़ने के लिए मेहनत की बाबा ने, मेहनत की  मेरे बाप ने,इस झंडे को मैं किसी को नहीं दूंगा।
 तो पीड़ित लोगों को मैं काका हाथरसी की एक कविता सुनाकर संवेदना व्यक्त करना चाहता हूं
नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक़्ल कुछ और।
शक्ल-अक़्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने,
बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने।
कहं ‘काका’ कवि, दयारामजी मारे मच्छर,
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर।
मुंशी चंदालाल का तारकोल-सा रूप,
श्यामलाल का रंग है, जैसे खिलती धूप।
जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट हैण्ट में-
ज्ञानचंद छ्ह बार फेल हो गए टैंथ में।
कहं ‘काका’ ज्वालाप्रसादजी बिल्कुल ठंडे,
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे।
पेट न अपना भर सके जीवन-भर जगपाल,
बिना सूंड के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल।
मिलें गणेशीलाल, पैंट की क्रीज सम्हारी-
बैग कुली को दिया चले मिस्टर गिरिधारी।
कहं ‘काका’ कविराय, करें लाखों का सट्टा,
नाम हवेलीराम किराए का है अट्टा।
दूर युद्ध से भागते, नाम रखा रणधीर,
भागचंद की आज तक सोई है तकदीर।
सोई है तकदीर, बहुत-से देखे-भाले,
निकले प्रिय सुखदेव सभी, दु:ख देने वाले।
कहं ‘काका’ कविराय, आंकड़े बिल्कुल सच्चे,
बालकराम ब्रह्मचारी के बारह बच्चे।
 चतुरसेन बुद्धू मिले, बुद्धसेन निर्बुद्ध,
श्री आनन्दीलालजी रहें सर्वदा क्रुद्ध। 
रहें सर्वदा क्रुद्ध, मास्टर चक्कर खाते,
इंसानों को मुंशी, तोताराम पढ़ाते,
कहं ‘काका’, बलवीरसिंहजी लटे हुए हैं,
थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुए हैं।
 बेच रहे हैं कोयला, लाला हीरालाल,
सूखे गंगारामजी, रूखे मक्खनलाल।
रूखे मक्खनलाल, झींकते दादा-दादी-
निकले बेटा आसाराम निराशावादी।
कहं ‘काका’, कवि भीमसेन पिद्दी-से दिखते,
कविवर ‘दिनकर’ छायावादी कविता लिखते।
 आकुल-व्याकुल दीखते शर्मा परमानंद,
कार्य अधूरा छोड़कर भागे पूरनचंद।
भागे पूरनचंद, अमरजी मरते देखे,
मिश्रीबाबू कड़वी बातें करते देखे।
कहं ‘काका’ भण्डारसिंहजी रोते-थोते,
बीत गया जीवन विनोद का रोते-धोते।
शीला जीजी लड़ रही, सरला करती शोर,
कुसुम, कमल, पुष्पा, सुमन निकलीं बड़ी कठोर।
निकलीं बड़ी कठोर, निर्मला मन की मैली
सुधा सहेली अमृतबाई सुनीं विषैली।
कहं ‘काका’ कवि, बाबू जी क्या देखा तुमने?
बल्ली जैसी मिस लल्ली देखी है हमने।
तेजपालजी मौथरे, मरियल-से मलखान,
लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान।
करी न कौड़ी दान, बात अचरज की भाई,
वंशीधर ने जीवन-भर वंशी न बजाई।
कहं ‘काका’ कवि, फूलचंदनजी इतने भारी-
दर्शन करके कुर्सी टूट जाय बेचारी।
पूंछ न आधी इंच भी, कहलाते हनुमान,
मिले न अर्जुनलाल के घर में तीर-कमान।
घर में तीर-कमान, बदी करता है नेका,
तीर्थराज ने कभी इलाहाबाद न देखा।
सत्यपाल ‘काका’ की रकम डकार चुके हैं,
विजयसिंह दस बार इलैक्शन हार चुके हैं।
रामराज के घाट पर आता जब भूचाल,
लुढ़क जायं श्री तख्तमल, बैठें घूरेलाल।
बैठें घूरेलाल, रंग किस्मत दिखलाती,
इतरसिंह के कपड़ों में भी बदबू आती।
कहं ‘काका’, गंभीरसिंह मुंह फाड़ रहे हैं,
महाराज लाला की गद्दी झाड़ रहे हैं।


दूधनाथजी पी रहे सपरेटा की चाय,
गुरू गोपालप्रसाद के घर में मिली न गाय।
घर में मिली न गाय, समझ लो असली कारण-
मक्खन छोड़ डालडा खाते बृजनारायण।
‘काका’, प्यारेलाल सदा गुर्राते देखे,
हरिश्चंद्रजी झूठे केस लड़ाते देखे।
 
रूपराम के रूप की निन्दा करते मित्र,
चकित रह गए देखकर कामराज का चित्र।
कामराज का चित्र, थक गए करके विनती,
यादराम को याद न होती सौ तक गिनती,
कहं ‘काका’ कविराय, बड़े निकले बेदर्दी,
भरतराम ने चरतराम पर नालिश कर दी।
नाम-धाम से काम का क्या है सामंजस्य?
किसी पार्टी के नहीं झंडाराम सदस्य।
झंडाराम सदस्य, भाग्य की मिटें न रेखा,
स्वर्णसिंह के हाथ कड़ा लोहे का देखा।
कहं ‘काका’, कंठस्थ करो, यह बड़े काम की,
माला पूरी हुई एक सौ आठ नाम की।


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