जीवन आनन्दित हुआ मेरा
नन्हे-नन्हे अवतरणो से
बचपन बीता वही मेरा
बाबुल के सुन्दर बगीचे मे
अद्वितीय देव अण्सय से पूर्ण हुई
मन की अविलाषा मेरी
कभी मुस्कान कभी हठ से करते
पापा से बचपन की अभिलाषा सभी
नंगे पाव दौड़कर गाँव की सारी गलियाँ
तपती धूप मे
हम नाप आया करते थे
बचपन की वो सारी शरारते
अपनो से ही दोहराया करते थे
हम मृदुमाषी संस्कारी नटखट
पापा की अनमोल धरोहर थे
बनकर उनके जीवन की संजिवनी
उनके चेहरे की खुशी का
हम्म सच्ची मूरत थे
ना जाने बचपन की वो सारी यादे
किन किताबो मे खो गयी
पापा की बगीयाँ भी छुटकर
जिम्मेदारियो के सवालो मे उलझ गयी
मनोरमा सिंह