"क्या यह अच्छा था?


"लगा लेते एकबार सीने से 
फिर शायद न जा पाते तुम
चूम लेते भींगे नयनों को तो
शायद न जा कभी पाते तुम
एक बार तो कह देते तुम
कि मेरे हो मेरे ही रहोगे
पलकों के मोती चूमकर
उनमें ही तो छुपे रहोगे

बहते आँसुओं में देखो तो
क्या रहते नहीं थे कभी तुम
होंठों की लाली से पूछो तो
क्या याद न करते कभी तुम

कैसे कह दी तुमने की
शब्दों में विश्वास नहीं मेरा
यही तो हैं जीवन-भर के
पूंजी-सम्मान बना था मेरा

क्या कभी लौट कर आने की
वादा भी ना कर जाओगे ?
एक स्वप्न सँजोया था हमने
उसे क्या यूँ बिखरा जाओगे?

जाना तो था ,फिर भी क्या
इस तरह से जाना अच्छा था?
हाथ छुड़ा ली,पीठ दिखा दी
अलविदा कहना क्या अच्छा था?"

     
      © डॉ मधुबाला सिन्हा
    


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