डा.ज्ञानवती दीक्षित
एक समय था जब हंस मैं ही खरीदती थी।म्युनिस्पल मार्केट की पत्रिकाओं की इकलौती दुकान। मैं बचपन से वहां जाती रही और पत्रिकाएं खरीदती रही। धीरे धीरे साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, चंदामामा,पराग ये सब मिलने बंद हो गये। कादम्बिनी और हंस मिल जाती थीं।एक दिन दुकान वाले ने बताया कि एक ही प्रति तुम्हारे लिए रखी थी, कोई और खरीद ले गया।उस दिन के बाद मेरा उधर जाना ही नहीं हो पाया।बोर्डपरीक्षाओं में फंसी रही।उन दिनों नैमिष कार्य क्षेत्र था,तो आने जाने का व्यतिक्रम भी था।इधर जो अखबारवाला आता है वह एक तो पढ़ा-लिखा है, उसने फिर हंस, इंडिया टुडे और कुछ अन्य बच्चों की पत्रिकाएं देनी शुरु की हैं।जून का हंस का अंक देखा । बहुत निराशा हुई। संपादकीय ही इतना रद्दी है कि और किसी की बात क्या करुं? संपादक महोदय ने विदेशी लेखकों और कृतियों का जाप करते हुए भारतीय लोकतंत्र की जितनी उड़ाई कर सकते थे,भरसक करने का प्रयत्न किया है।उनको मैकियावेल्ली की मुस्कुराहट याद करने के लिए बधाई।यही वायवी चिंतन तो इन पत्रिकाओं को जनता से दूर ले गया, वरना मेरे जैसे बहुत साधारण स्थिति के विद्यार्थी भी ये पत्रिकाएं खरीद कर पढ़ा करते थे।
आगे गोविंद मिश्र की कहानी है सिरीहीन।यह कहानी भी बताती है कि बड़े लेखक यह सोचकर बैठते हैं कि आज किसी सवर्ण के बिगड़े नौनिहालों पर कलम चलानी है।अरे किस कल्पना की दुनिया में रह रहे हो लेखक?आज सवर्ण गांव का सबसे गरीब तबका है,जो दो वक्त की रोटी के लिए संघर्षरत है।दारु पीकर दंगा और सिटिया बाजी इतर जातियां कर रही हैं।पर फैशन है लिखा ब्राह्मण ठाकुर पर ही जाएगा, क्योंकि शाबाशी तभी मिलेगी और पुरस्कार भी तभी मिलेंगे। आर्टिकल १५ की तरह।आज के जमाने में झूठ भी सच का लेबल लगा कर बिकता है सरकार। उस अंक को पढ़ने के बाद मैंने हंस लेना बंद कर दिया। इससे हमारे फेसबुक पर बहुत नए लेखक लेखिकाएं बहुत सुंदर लिखते हैं।मन प्रसन्न हो जाता है।