नवगीत
हर एक का गम अपने दिल पर लगाती हूं
हर एक की खुशी में दिल से मुस्कुराती हूं
मेरा नहीं यहां कुछ पर( इस घर के लोगों के) सुख दुख में साथ निभाती हूं
मैं एक नारी हूं
पत्नी बेटी मां होने का फर्ज निभाती हूं
और मैं एक इंसान हूं
यह खुद ही भूल जाती हूं
इस तरह दुनिया में लड़की होने का फर्ज निभाती हूं
सवेरे रोज उठती हूं ,जीने के लिए
शाम होते होते बेमौत मर जाती हूं
पर मानती नहीं हार फिर
नई सुबह की आस लगाती हूं
अपने मन में
आशा का छोटा सा दीप जलाती हूं
उसी दीप के सहारे दिन बिताती जाती हूं
स्वरचित :
सुनीता द्विवेदी
कानपुर उत्तरप्रदेश