आत्महत्या क्यूँ ?


एक सोच !
चोट तेरे दिल की कुछ पल को सम्भल जाती !
ख़्वाहिश की तड़पन को आवाज़ मिल जाती ।।
कोई एक ही सुन लेता आवाज़ तेरे दर्द की !
शायद ये मनहूस घड़ी टल जाती ।।

गुम सुम सा साथ सबके भीड़ में रहा अकेला !
जाने किस किरिच ने तेरे दिल को है तोड़ा ।।
सांत्वना से घाव पे  पपड़ी ही पड़ जाती !
शायद ये मनहूस घड़ी टल जाती ।।

अपनी गिरह बाँधी ख़ुद से ही बहुत बोला !
उलझे रहे बहुत देर तक हाथ रखें माथे पर ।।
किसी को आँखो की अमावस दिख जाती !
शायद ये मनहूस घड़ी टल जाती ।।

क्यूँ नहीं लड़ पाए दुनिया के झमेलो से !
लोट कर ना जा पाए अपनो के मेलों में ।।
कही तेरे टूटने की बात तो चल जाती !
शायद ये मनहूस घड़ी टल जाती ।।

एक बार तो ख़ुद  को ख़ुद से पुकारा होता !
ज़िंदगी सच्ची है मौत को बताया होता ।।
लाखों को तेरे लड़ने से ताक़त मिल जाती !
शायद ये मनहूस घड़ी टल जाती ।।

सवि शर्मा 


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