ए-रूहह तू क्युं ऐसे इतरा कर रहती है
यही कि तेरे पास सब है
अरे पागल मुझ पर उसका हाथ है रखा
जाे तेरे और तेरे जहां का भी रब है . . .!!
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तुझे चाहा मुद्दताें तक, की मिन्नतें
ना पता था तन्हा कर जाओगे
अब जहाँ गये हाे गर . . .
वहां भी मिल गये गम
ताे तुम फिर किधर जाओगे . . .!!
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जहाँ भी देखूं आतंक से घिरा तहखाना है
निशाना ताे लगाया तूने लेकिन
बच गये हम
पता नहीं तेरा कैसा निशाना है
शायद तू भी मेरा दीवाना है . . .!!
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मेरे नशे का यूं हाल है
तुम्हारे चेहरे पर कि . . .
कभी जरूर उताराेगे
लेकिन जाे ग़र मिल गयी निगाहें
ताे निगाहाें से हमें कैसे माराेगे . . .!!
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अब तक जाे बितायी उम्र मैंने
उसकाे बेपनाह चाहने में
कि मुहब्बत मुंह जब़ानी कर गया
हर उस काे मार दिया मैंने
जाे मेरे भारत का दुश्मन खानदानी बन गया . . .!!
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---शिवम् पचाैरी
ज़सराना (फ़िराेज़ाबाद)