दुनिया तो बस गोलमोल थी, जल थल से थी भरी हुई|
उसको गढ़कर जिन हाथों ने रहने के लायक कर दी||
झोपड़, कुटिया, महल अटारी, सब जिनसे आबाद हुए|
बुरे वक्त में सबसे ज्यादा, वही हाथ बर्बाद हुए||
सड़कों पर बिखरी ये चप्पल, नंगे पावों के छाले|
बेबस से चलते जाते हैं, बच्चे, बूढ़े, घरवाले||
शासन और प्रशासन को हम, देते रहते दोष यहाँ |
जरा सोचिए इनकी खातिर क्या अपना सहयोग यहाँ ||
हल्दीघाटी सा रण है ये,सबका सहयोग जरुरी है |
रणविजय हेतु राणा के संग, फिर भामाशाह जरूरी है ||
प्रतीक्षा तिवारी,
कानपुर