साहित्यिक  पंडानामा :७३०

 



भूपेन्द्र दीक्षित


हे अनंत रमणीय !कौन तुम?
यह मैं  कैसे   कह   सकता,
कैसे हो?क्या  हो?इसका तो
भार विचार  न सह सकता ।(कामायनी)
    साहित्य  तो मनस्तत्व की गहराइयों से निकली वह पावन गंगा है,जिसका एक छींटा हमारे  तनमन को पवित्र  कर देता है।फिर क्या कारण है कि सरस्वती  के ये वरद पुत्र  और पुत्रियाँ  मंच पर पहुंचते ही भद्दी फिल्मों  के हेलन और असरानी हो जाते हैं ।
सस्ती लोकप्रियता  पाने के लिए इनका इतना  पतन हो जाता है कि अश्लील  छींटा कशी साहित्य  का वातावरण  बिगाड़  कर रख देती है।
एक समय था जब लोग परिवार  सहित  कवि सम्मेलन  सुनने  जाते थे।आज भला आदमी  खुद कतराता  है  परिवार  की कौन कहे?
कौन हैं  कवि सम्मेलनों  के इस अधः पतन के जिम्मेदार? मेरे यहां  एक संस्था  के कर्ता -धर्ता  बुजुर्गवार आया करते थे।बहुत  आयु  थी।अक्सर हमसे  कार्यक्रम  के नाम पर चंदा  मांग ले जाते।एक दिन प्रसन्न  थे  ,तो संस्मरण  सुनाने लगे और वे कवयित्रियां जो उन्हें  चाचा, बाबा  कहती नहीं  थकती थीं, उनके बारे  में  इतनी फूहड बातें  कवि महोदय ने कीं कि मुझे उनसे वितृष्णा हो गयी।
यही हाल अधिकांश मठाधीशों का देखता हूँ  कि अपनी बेटी  की  आयु की बच्चियों  के विषय में  वे कैसे छींटेबाजी करते हैं, सच कहता हूँ -उनसे  घृणा  हो जाती  है।ये हैं  साहित्यिक  पंडे-तीर्थध्वांक्ष।इनसे  कवि सम्मेलनों  को मुक्त  कराने की आवश्यकता  है,ताकि  सरस्वती  के चरण  पुनः मंच पर पड़ें।


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