भूपेंद्र दीक्षित
साहित्यिक दुनिया एक अलग तरह की दुनिया है ,मित्रों! कुछ कुछ मुझे चांद चाहिए जैसी।यह चांद की चाहत हमें एक अलग दुनिया में ले जाती है-सपनों की दुनिया में ।पर हकीकत तो मखमली नहीं होती।पथरीली दुनिया के कंकड इस चाहत के रेशमी तलवों को घायल कर देते हैं ।
सपने और सत्य -दोनों में बहुत सूक्ष्म सी डोर है ,जो इनको विभाजित करती है।कवि जब कविता की सुनहरी दुनिया से बाहर आता है,तो वह देखता है यह साहित्यिक दुनिया जलन और स्पर्धा के शिकारियों से भरी है।कोई उसे सहारा नहीं देता।वरिष्ठ उसे हिकारत से देखते हैं, समानधर्मा उसे जलन से देखते हैं -आ गया एक और जगह का दावेदार ।अब यहाँ आरंभ होता है धंधे बाजों का खेल।वे कमतर प्रतिभा वालों का गैंग तैयार करते हैं ।उनसे पैसा वसूलते हैं ।उन्हें कार्यक्रम दिलाते हैं ।आपको आश्चर्य होता है कि रेडियो और दूरदर्शन पर वही आवाजें और चेहरे रिपीट होते हैं ।बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है।साहित्यिक संस्थाएँ इसी मकडजाल में फंसी हैं ।यही चांद के चेहरे के बदनुमा दाग हैं, मित्रों! पर हमें तो चांद चाहिए ।
आज अपने गांव गया था ।अपने पिपरमिंट के खेत में एक फोटो तो बनता ही था।