"नारी"

 



"मैं ,मगरूर नहीं
मजबूर भी नहीं
न लाचार हूँ, और
न गवाँर ही हूँ 


मैं अपनों के बीच 
अपनों के ख़ुशी में
जीने वाली एक
अदना -सी नारी हूँ ।
जो रोज जीती है 
अपनों के लिए,
रहने के लिए
अपनों के बीच में।


भिचती है जो मुट्ठी में
छोटी-छोटी खुशियाँ
खुद को खुश रखने के लिए
जीती है जो हर पल 
दूसरों की ख़ुशी को,
हर गम को ,खुद में समेटे
मुस्कुराती है वह 
दूसरों के लिए हीं।


फिर भी ,मिलती है क्या ?
एक अपनत्व की भावना भी नहीं
एक प्यार की मुस्कान भी नहीं
गैरों की चाहत का पता नहीं
अपने भी तो कभी समझ नहीं पाते


फिर भी जीती हूँ मै
जीऊँगी भी मै 
क्योंकि मैं एक "नारी" हूँ
जहाँ मेरा होना न होना ही है।
फिर भी मैं पूर्ण हूँ
अपने आप में
अपने लिए
अपनों के लिए
अपने "आप"के लिए।
हाँ---
क्योंकि मैं एक नारी हूँ।
      **
      डॉ मधुबाला सिन्हा



  


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