फैल गयी है दहशत चहुँ ओर,
सूख गए हैं अब नैनों के कोर।
यत्र-तत्र लगे हैं लाशों के ढेर,
नहीं पता कौन अब अगली बेर।
हाथ मिलाने की बात कौन करे,
नजरें मिलाने से भी सब हैं डरे।
ऐसी भयावहता तब भी नहीं थी
जब 'विश्व-युद्ध' की ललकार हुई थी।
मृत्यु के बाद भी शरीर को सद्गति नहीं,
भय के माहौल में कहीं भी प्रगति नहीं।
थम गया है जीवन हुआ मुर्दा समान है
कैदी-सा बंद पिंजरे में, अटकी जान है ।
आज का मंजर कल को इतिहास बनेगा ,
परवर्ती पीढ़ी को सहज विश्वास न होगा।
ऐसा भयानक दौर भी आया था कभी,
पूर्वजों से सुनकर तब करेंगे आश्चर्य सभी।।
स्वरचित
गीता चौबे "गूँज"
राँची झारखंड