ग़ज़ल

 



श़ज़र की छाँव से अपनी बहुत गहरी सी यारी है,
कि बचपन गोद में जिसके फकत हमने गुजारी है।(1)


जिसे कहते शहर के लोग है किस काम की तू अब,
हमारे गाँव की अम्मा कहानी की पिटारी है।(2)


कि बूढ़ा बाप कैसा हो नही लगता किसी को बोझ,
पढ़ा बेटा नही जिनका पिता का वो पुजारी है।(3)


सुना है बेटियाँ सबकी बहुत सम्मान करती हैं,
मगर मसले यही निकले कि फिर भी वो विचारी हैं।(4)


कलेजे से लगा करके सुनाती लोरी दादी है,
पिता-माता से बढ़कर वो कही बच्चों को प्यारी है।(5)


अदब से पेश आते हैं भले चलना न आता हो,
बुजुर्गो ने हमारे गाँव की पिढ़ियां सुधारी हैं।(6)


बहुत भटका नही पाया कही पर मैने वो जन्नत,
कि रखकर हाथ सर पे जो बुजुर्गो ने दुलारी है।(7)


जरा सा भी अगर तपता हुआ मेरा बदन लगता,
कि पूरी रात माँ बैठी ही सिरहाने गुज़ारी है।(8)


कभी आँखों में जब ख़्वाहिश दिखी पूरा किया उसने,
फरिश़्तों की तरह माँ ने दिलों जां हमपे वारी है।(9)


प्रियंका दुबे 'प्रबोधिनी'
गोरखपुर, उत्तर प्रदेश


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