हे ब्रह्मांड के रचियता,
हे सृष्टि के रचियता।
कई रूप धरते हो तुम,
सबका मन मोहते तुम।
कभी बनते भोले भंडारी तो,
कभी त्रिनेत्र और तांडवधारी।
कभी भोले भाले रूप से लुभाते,
कभी विकराल रूप से प्रलय लाते।
हर रूप में लगते हो प्यारे,
तेरी महिमा है निराली।
छप्पन भोग से नही दरकार,
भांग धतुर ही प्रिय है तुम्हे।
नाहीं मंदिर नाही देवाला,
तुम्हे शमशान ही भाये है।
राजा भोज से क्या तुम्हे,
जब जीव जन्तु ही मित्र है।
हे जगत के पालनहार,
तेरी महिमा है अपार।
रचनाकार -आशा उमेश पान्डेय
अम्बिकापुर छग
तिथि-20/2/2020