ये ज़िन्दग़ी उदास है, बोलो कि क्या करें?
कोई न आसपास है, बोलो कि क्या करें?
कैसे गुजार लें, भला तनहाइयों की रात,
ना होश, ना हवास है, बोलो कि क्या करें?
कुछ पल गुजार लेते हम संग चाँद के,
अब ये भी तो निराश है, बोलो कि क्या करें?
सब सो गए हैं, ओढ़के चादर गुलाब की,
जाने, हमें क्या आस है, बोलो कि क्या करें?
संगीत सुभाष,
मुसहरी, गोपालगंज।