निर्भय नीर
पुराने गोदाम के बड़े,
आंगन में पड़ा था,
एक ओर ढ़ेर सा ढ़ेर चूना ।
बड़ा सा फाटक,
जो बार-बार,
खुलने-लगने के समय,
जोर से कर उठता था,
चूँ---चीं---चुर्र---चर्र।
सील से भरी उसकी दीवारें,
जंग से आधी खाई हुई,
उसकी किवाड़ें।
××××××××××
एक ओर बरामदे पर टूटी,
खाट पर बैठा मुंशी,
कान पर कलम,
नाक पर पीतल के फ्रेम का,
लटकता हुआ चश्मा,
मैली मिरजई।
सामने लाल लम्बी बही,
चित्रगुप्त भगवान की
खाते की तरह,
अधखुली आधी लिपटी,
संकोच एवं लज्जा से,
मानो अपने ही में सिमटी,
और ऊपर बंधा लाल फीता।
×××××××××××××××××
बेचारा मुंशी दोपहर में,
सेठ की झिड़कियाँ सुनता,
सवेरे मजदूरों को ड़ांटता,
सांझ में तहरीर के,
पैसों को जोड़ता।
रास्ते में कलाली पर ,
एकाध चुक्कड़ चढ़ा,
रात बितते लौटता जब घर,
कभी बच्चों पर बरसता,
कभी पत्नी से झगड़ता।।
*****************
रोज सवेरे आते,
ढ़ेर के ढ़ेर मजदूर,
बड़ी-बड़ी टोकरियां,
बड़े-बड़े उनके फावड़े।
युगों के सारे मलवे को,
हटा फेंकने का,
सामर्थ्य रखने वाले ये,
पर काश !
वे समझ पाते,
अपनी शक्ति को,
अपनी पौरुष को,
और अपने संगठित बल को।
×××××××××××××××××
उसी पुरानी गोदाम के थोड़ा ही,
उत्तर पूरब सड़क के उस ओर,
जहाँ कभी वृक्षों की घनी ,
झाड़ी में सियार रोते,
दिन में कीड़े रेंगते,
गन्दे पानी के गढ़्ढों में,
बड़ी-बड़ी मछलियाँ,
छोटी मछलियों को,
सामोद अपना आहार बनाती,
दुनिया के चोरों उच्चकों की,
स्वर्ण भूमि में आज ,
सपाट मैदान में,
खोदी जा रही थी नींव।
उठाई जा रही थी,
बड़ी-बड़ी दीवारें,
लाल ईंटों की,
जो कोयले के,
लाल अंगारों में पकी,
फौलाद की तरह मजबूत ,
सुर्खी पर जोड़ी गई।।
×××××××××××××
कहीं अध बनी दीवारें,
कहीं बने मकानों की कतारें,
कहीं ढ़ेर के ढ़ेर सूर्खी,
कहीं रोड़े,
कहीं ईंटो की पाजाबे,
कहीं ट्रकों पर लाया जाता चूना।
इस चारों ओर सूर्खी में,
सफेद वह रक्त विहीन सा,
सहमा सिमटा ,
संकोच और लज्जा में गड़ा।।
××××××××××××××××××
पर तभी,
याद आती उसे,
दीवारों के भीतर ,
चाहे जितनी भी सूर्खी हो,
ऊपर-ऊपर उन्हें तो,
चूना सफेद करते ही हैं।
जीवन की प्रखरता ,
उसकी तेज को,
सह सकने की क्षमता,
अभी मानवों में कहाँ ?
फिर भी जिन्दगी की सुर्खी ,
पर सवार है,
वह सफेद चूना।
और हिराकत भरी नजरों से,
सूर्खी की ओर देखता ,
मानो कहता!
अरी ! चल,
तू जितनी भी दीवारें जोड़ ,
जब तक मेरी कुंची न फिरेगी,
तब तक उन पर,
कोई देखेगा भी नहीं।
पर चट तभी जबाब देती सूर्खी,
इतना इतराओ नहीं बाबू !
दूसरों के किए हुए पर,
कुंची फेरने वाले।
×××××××××××
घृणा से भर उठता,
उसका मन,
कहती वह जीवन की,
लाली को भी,
सम्बल व आश्रय मांगने जाते,
कहीं देखा है किसी ने।
देखते नहीं ,
यह लाल अंगार में पक्की हुई,
ईंटों को जोड़ती मैं।
बर्द्धमान जिन्दगी के ,
इस विराट आलम में,
है भी कहीं सफेदी ?
और तू चूना ,
जिसे ऊँगलियों से छुए,
तो जला दे।
और काले काले कृत्यों को भी,
अपने रक्त विहिन ,
सांचे में जो छिपा ले।।
×××××××××××××
और सूर्खी ,
जीवन की लाली ,
जीवन शक्ति और ,
स्फूर्ति का प्रतीक।
वह तो स्वंय ऊपर सतह पर,
उमड़ कर कभी रहती नहीं,
वह तो स्वंय जीवन है।
गिरती दीवारों के ईंटों को भी,
नहीं छोड़ती वह ,
थोड़ी वर्षा और चूना,
धुलकर साफ,
सुफेदी गायब ,
बस केवल काले काले घर।।
लेकिन यह सूर्खी ,
ईंटों को भी नहीं ढ़हने देती।
वर्षा की बूँदें,
बिजली की कड़क,
व प्रखर जलती हुई धूप में,
सबों में वह सामान,
ईंटों पर ,
ईंटों के बीच,
ईंटो के नीचे ,
अडिग,
अचल,
और अटल पर मौन।।