गुनगुनी सी धूप अब होने लगी।
शबनमी यादें अंतस छूने लगी।
भींगती हैं नर्म - नर्म दूव अब,
तृप्त होती भाव सुधा पीने लगी।
तन से जो अब छू रहा शीतल समीर,
अनुभूतियों की गुदगुदी होने लगी।
सिंदूरी सी हो उठी है साँझ अब,
मन में कहीं हरशृंगार कली झरने लगी।
धानी चुनर लहरा उठी सृष्टि की 'उषा',
मन में नव उमंग की बयार सी बहने लगी।
डॉ उषा किरण
पूर्वी चंपारण, बिहार