अनुबंध

 



एक‌ ठंडी हवा का झोंका 
छिपते छिपाते पहुंच‌ गया 
कमरे में मेरे 
चिलचिलाती गरमी में सुकून भरा मौसम सा 
मेरे आँचल में बंधे मुट्ठी भर हरश्रृंगार‌
बिखर गये हवा में
 सुवास भरते हुये 
साँसे फिर से खोजने लगी अनुंबंध 
इस‌भीनी सी सुगंध में 
यही सोचकर कि तुम लौट आओगे कभी न कभी ।
जोहती रही बाट‌ मैं अहिल्या सी
वक्त की ठोकरें खाती हुई 
कि मेरे  राम कब आयेंगे 
कब होगी मुक्त यह
पाषाण के कारा में बंदी देह‌
कब नयन तृप्त होंगे 
कब चातक की प्यास बुझेगी 
जलती रहेगी नेह की यह बाती  
या भभक कर बुझ जायेगी 
अपना अस्तित्व लुटायेगी 
महकेंगे नहीं फिर 
ओ मुट्ठीभर हरश्रृंगार‌ कमरे में मेरे 
नयन फिर भी टकटकी सी लगायेंगे 
जाने फिर‌ कब आयेगी चुपके से 
ठंडी हवा मेरे कमरे में 
तपते देह मन प्राण को 
सम़झाने में -सु़धा मिश्रा 03.6.19 सर्वाधिकार सुरक्षित


Popular posts
गाई के गोवरे महादेव अंगना।लिपाई गजमोती आहो महादेव चौंका पुराई .....
Image
अस्त ग्रह बुरा नहीं और वक्री ग्रह उल्टा नहीं : ज्योतिष में वक्री व अस्त ग्रहों के प्रभाव को समझें
Image
दि ग्राम टुडे न्यूज पोर्टल पर लाइव हैं अनिल कुमार दुबे "अंशु"
Image
परिणय दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
Image
पितृपक्ष के पावन अवसर पर पौधारोपण करें- अध्यक्ष डाँ रश्मि शुकला
Image