राकेश चन्द्रा
बहुत फर्क पड़ता है
किताबों के न होने से..
ये किताबें ही तो हैं
जो सिखाती हैं ह से हवा ,
प से पानी और भ से भेड़िया ,
किताबें सिखातीं हैं हवा में जहर
कैसे घुलता है और सूरज
की रोशनी का मतलब क्या है ।
वो लोग जो चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं,
कि किताबें बेमानी हैं, ऐसे ही लोग,
सैकड़ों-हजारों सालों से जलाते रहे हैं,
पुस्तकालय दर पुस्तकालय वृहदाकार,
और फिर भी लिखवाते रहे
अपने-अपने समय का इतिहास ,
दरबारियों से,इसलिये सदियों से
लिखी जाती रहीं हैं किताबें, पढ़ते रहे लोग,
गुनते-बुनते रहे वर्षों से संचित ज्ञान को,
आज भी व्हाट्सएप -फेसबुक के युग में ,
छप रही हैं किताबें,पढ़ रहे हैं लोग,
बुन रहे हैं सपने
अपने समय के सापेक्ष,
ये किताबें ही हैं जो बताती हैं फर्क,
एक अदद भेड़िये और आदमजात में,
भरती है विश्वास इन्सानियत और
कानून की बात में,
फर्क पड़ता है जब लोग बात करते हैं,
किताबों के बगैर दुनिया की,
ये किताबें ही हैं जो पहचान कराऐंगी
सूरज,चाँद,हवा, आकाश और पानी की,
आदमी के भेष में छिपे भेड़ियों की,
और हवा में अबूझ इबारत लिखने वाले
बहरूपियों की,
आज फिर से वक्त आ गया है
किताबों के पीछे नहीं
किताबों के आगे जाकर ढाल बन कर
खड़े होने का, क्योंकि
किताबें कल भी थीं, आज भी हैं, और
हमेशा रहेंगी -सूरज और चाँद की तरह ..।
राकेश चन्द्रा
लखनऊ