श्रद्धांजलि (भाग -4)

 मीराबाई



वीणा गुप्त 

अनन्य भक्ति की माधुरी ,

तुम प्रीति का कल गान।

अश्रु सिंचित प्रेमबेलि पर,

खिली कली सी,सुरभित प्राण।


लगन लगी जब कृष्ण की ,

तृणवत त्यागे सुख सभी।

बालकाल से नटवर रत उर, 

तुम मोहन की  सखी चिर। 


बनी दीवानी इष्ट की अपने ,

कर नर्तन  उन्हें  रिझाय। 

कृष्णमयी ही बन गईं तुम ,

सदा गिरथर पर बलि जाय।


दिया हलाहल जगत ने ,

तुम पी गईं,रख विश्वास ।

अमृत हो गए गरल सब,

मन नहीं वैर, न त्रास। 


लोक- लाज बिसराय सब,

बैठी जाय गिरधर-शरण। 

पीताम्बर ,मोर पंख वाला।

मुरलीधर,त्रिविध ताप-हरण।


सहज भाव  से  कर रही

मीरा प्रकट हृदय उद्गार ।

उसके  मन की जानता,

बस उसका तारण हार।


मीरा समर्पण की है प्रतिमा 

मीरा का मन उजला दर्पण।  

निरखे सदा श्याम सुंदर को,

प्रतिपल गायन,अर्चन,वंदन।


माधुर्य की अजस्र मंदाकिनी 

भाव रस,ताल की प्रतिछाया। 

अमर काव्य बन गया वही,

मीरा तुमने जो भी  गाया। 


वीणा गुप्त 

नई दिल्ली

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