ग़ज़ल

  


सुभाषिनी जोशी 'सुलभ'

खुशबू नहीं आती है काजग  के  फूल  से, 

फूल असली  हों तो ताजगी आ जाती है।


एक  आत्मा  होती  है  सबके  शरीर  में, 

चिरागों  की  जिन्दगी  तेल और बाती है।


नकली  भी  तो हो सकती है इन्सानियत, 

नेकी  और आदमियत सबको बुलाती है।


अपने   और   पराये   में  कैसे  फर्क  करें,

चापलूसी  खुशामद  सभी को  लुभाती है।


'सुलभ'  भलाई  के भले कोई पर्याय नहीं, 

कुटिलता अपना फर्ज  बखूबी निभाती है।


सुभाषिनी जोशी 'सुलभ'

इन्दौर मध्यप्रदेश

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