मनोहर दोहे
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कुआं बावड़ी बन्द कर, मानव बना महान।
जल संकट को देख अब, दुखी बहुत नादान।।
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देखी सुंदर बावड़ी, उपजा मन यह भाव।
वंदन उनको मै करू,प्रेम रचा यह चाव।।
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विकास पनघट खा गया,जल आया घर द्वार।
पत्नी पिया से अब कहे, धन्य धन्य भरतार।।
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जब से पनघट है मिटे, दिखे न अब पनीहार।
अल्हड यौवन ना दिखे, ना पायल झनकार।।
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शहर गांव को ख़ा गएं,भूले अपनी चाल।
छल कपट सारे बस गए,हुआ हाल बेहाल।।
मन वीणा
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बज उठे मीत मन वीणा के तार।
मै इस पार सनम तुम परले पार।।
बीच में है दुश्मन यह जग सारा।
फलेगा केसे अब प्यार हमारा।।
तुझ बिन प्रिय ये मन चैन न पाएं।
तूने अच्छे मीठे सपन दिखाएं।।
बाग़ में मितवा हम तुम मिले थे।
अधर से जब हमरे अधर मिले थे।।
अली - कली मिल करते थे गुंजार।
बज उठे मिट मन वीणा के तार.....
ख्वाबों में जब तब आना तेरा।
आंखो मै यूं बस जाना तेरा।।
वो काली घटा सी जुल्फे बिखराना।
धीरे से कहना भूल न मुझे जाना।।
हाथो मे देकर हाथ अपना कहना।
वादे सनम अपने तूं सदा निभाना।।
सपन सारे पूरे होगे हमार।
बज उठे मीत मन वीणा के तार...
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कवि मनोहर सिंह चौहान मधुकर