डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" की कलम से

 


छवि

10.

छवि देखता रहता मानव,मायावी संसार की।

चर्म-चक्षु दिखलाता रहता,चीजें विविध प्रकार की।

ज्ञान-चक्षु यदि खोले मानव,दिख जाता कुछ और है।

ज्ञान उसे हो जाता बरबस,नहीं जगत में ठौर है।।


ज्ञान मिटाता है अंधेरा,फैलाता उजियार है।

ज्ञान मिलाता है ईश्वर से,ज्ञान मुक्ति का द्वार है।

मोह-रहित होते हैं ज्ञानी,कर्मठ और उदार भी।

निष्काम कर्म करते जग में,प्रेमपूर्ण व्यवहार भी।।


करते सात्विक कर्म सदा ही,ज्ञानी जन संसार में।

बहते रहते हैं दिन-रैना,भक्ति-भाव रसधार  में।

ज्ञानी भक्त परम प्रिय होते,सदा-सर्वदा ईश के।

भूल न जाना अर्जुन प्रिय थे, जगपालक जगदीश के।।


देखो अर्जुन ! विश्वरूप मम,नयन-युगल तुम खोल के।

बोले थे अर्जुन से माधव,वाणी में रस घोल के।

चर-अचर सहित जग सारा,एक देश में देख लो।

जो कुछ अन्य देखना चाहो,पार्थप्रतिम ! तुम देख लो।।


नयन-युगल यूँ फाड़-फाड़ के,देखा वह उत्साह से।

मगर दिखाई कुछ दिया नहीं,कहर उठा वह आह से।

माधव दान दिए अर्जुन को,दिव्य-चक्षु अति प्यार से।

चर्म-ज्ञान अरु दिव्य चक्षु की,बात कही विस्तार से।।


छवि

11.

दिव्य-चक्षु पाते ही अर्जुन,बरबस जड़वत हो गए।

सीमा पार किए ज्ञानी की,दैव-जगत में खो गए।

परम रूपमैश्वर भगवन थे, सम्मुख पार्थ के खड़े।

नाना मुख चक्षुयुक्त नाना, दिव्याभूषण से जड़े।।


नाना अद्भुत दर्शन वाले,नाना आयुध से सजे।

नाना दिव्य वस्त्र-माला से, नख से शिख तक थे सजे ।

दिव्य सुगंध युक्त लेपन तन,आश्चर्यजनक रूप था।

शुभमय सुंदर अरु प्रकाशमय,सर्वसमर्थ स्वरूप था।।


सकल चराचर विश्व तुम्हीं में,तुझमें ही ब्रह्मांड हैं।

जन्म-मरण सृष्टि-प्रलय तुझमें,तेरा रूप प्रकांड है।

अनेकबाहु तुम्हीं हो माधव,अग्निरूप भी हो तुम्हीं।

प्रेमिल हो तुम कठोर भी हो,सुखद-दुखद भी हो तुम्हीं।।


हे देव ! विश्वव्यापी तुम हो,विश्वेश्वर भी हो तुम्हीं।

तुम्हीं मुकुटयुक्त गदायुक्त हो,चक्रयुक्त भी हो तुम्हीं।

परमब्रह्न परमेश्वर प्रेमिल,हो पुरुष सनातन तुम्हीं।

तुम ही अक्षर अविनाशी हो,अनादिमध्यान्तम तुम्हीं।।


डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"

गिरिडीह (झारखण्ड )

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