शरद कुमार पाठक की कलम से



अब उठते नहीं


अब उठते नहीं

 हृदय उद्गार

क्या भावों की 

धार लिखूं

इस सरिता का

अवरुद्ध प्रवाह

क्या उड़ती मैं रेत लिखूं

जिसमे धार प्रवाहित न हो

क्या मैं वो अवरोध लिखूं

अब उठते नहीं

 हृदय उद्गार

क्या भावों की 

धार लिखूं

जिधर दृष्टि पड़ती है

क्या उजड़ा संसार लिखूं

अब रहा नहीं

स्नेह मिलन

क्या कुटुंब गरल

विष धार लिखूं

ये नगरों के चन्द भौतिक चोंचले हैं

क्या उजड़े मैं गाँव लिखूं

अब उठते नहीं हृदय उद्गार

क्या भावों की धार लिखूं

अब विलुप्त है प्रकृति की छांँव

क्या मरु की मैं भूमि लिखूं

अब उठते नहीं

 हृदय उद्गार

क्या भावों की

धार लिखूं


 बरसे मेघ-!


बरसे मेघ धरा

हर्षायी

तरुवर बहु कली

मुसकाई

कुन्ज लताऐं

मनहर सी छायीं

पड़ति बूंद पाके रसाल

घुंघराली सी जामुन छायी

बरसे मेघ धरा हर्षायी

अब कुन्ज लताऐं 

मनहर सी छायीं

हरषे कानन बहु तरुवर

अब कली कली मुसकाई

झूले बहु तरुवर की डाली 

आम रहे गदराई

होति सांझ गादुर मरड़ाये

लगे अब वर्षाऋत आयी

बरषे मेघ 

धरा हर्षायी

हाँ अब कुन्ज लताऐं

मनहर सी छायीं


बरसाती दोहे-!


१)उठति मेंघ हर्षति धरा

बहइ नीर जल धार

पड़ति बूंद अब नवकली

तरु नव कोपल खिलति अपार


२)बोलति दादुर एक स्वर

अब बरषा के आशार

अरणय शारंग बोलते

चढ़ि बिटप मचावति शोर


३)अवनी सरिता जल बहे

खिले कुमद जल नाल

खिलति पंक अब नवकली

पाके अम्ब रसाल


४)पड़ति बूंद अवनी तरी

रहे मनुज हर्षाय

जस चातक के मुख

स्वांति बूंद पड़ि जाय


५)अब भरे हराईं वर्दवली

खेतों के मैदान

बाजति घुंघुरू कण्ठ मां

हाँकति चलइ किसान


आषाढ़ के मेघ-


छारहे हैं मेघ मनहर

और मेघ की काली घटाएंँ

शुष्क से अब शीत होतीं

चल रहीं मनहर हवायें

देख बादल स्वरमयी

अब कूंक शिखवन हैं लगायें

मानो बुलाते नेह से

अब गान मंगल यूं सुनायें

छितरा चली है तृण धरा पर

तरु ओढ़ते हरियल लताऐं

मानो धरा श्रृंगार करती

अब छारही कोंपल लताऐं

छा रहे हैं मेघ मनहर

और मेघ की काली घटाएंँ

सर जलाशय उफना पड़े हैं

अब वेग बहती धारायें

पीत दादुर हैं फुदकते

गूंँज एक स्वर में हैं लगाये

छा रहे हैं मेघ मनहर

और मेघ की काली घटाएंँ

       शरद कुमार पाठक

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