धरा की पुकार ....

             

  निर्मला जोशी

       बहुत उदास लगती है धरती।मानो कुछ कुछ कहती है।मेरी हरियाली को विकास की नज़र खा गई।बहुत निराश हूं मैं मानव के क्रिया कलापों से।रे मानव अभी तुम्हारी समझ पर ताले जड़े हुए हैं।तम्हारे आँख ,कान,और दिल ,दिमाग सब बंद पड़े हैं।अभी  झूठे आनंद में मगन हो।केवल और केवल विकास पर नज़र है तुम्हारी।पर कटती -घटती वन राजि की तरफ तुम्हारी उदासीनता किसी से छिपी नहीं है।मेरी नदियां दिनों दिन सूखती जा रही हैं साथ  गंदगी का ढेर उसमें समोते जा रहे हो।और मेरे पहाड़ ?उनको तो तुमने नंगा कर ही डाला है।कुछ नहीं बचा अब मेरे पहाड़ों में।मेरी हवा तक को इतना ज़हरीला बना दिया कि मेरा  खुद का दम घुटने लगा है अब। पर तुम्हें क्या फर्क पड़ता है।तुम तो अपने पुत्र विकास  के प्रेम में ही अंधे हुए जा रहे हो। पर एक दिन जब मेरे वक्ष से एक एक कर सारे वृक्ष उजड़ जाएंगे ,पहाड़ पूरे  दरक जाएंगे और नदियां सूख के रेत के ढेर में बदल जाएंगी तब बूंद बूंद पानी के बिना कैसे बीतेगा तुम्हारा जीवन।न  पानी होगा न प्राण वायु। जब हाहाकार मचेगा तब तुम्हे शायद सुधि आएगी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।पछताने से कुछ नहीं होगा खेत को चिड़िया चुग चुकी होगी। अभी भी समय है संभल जा रे मानव अभी इतनी भी देर नहीं हुई है ।वक्त रहते अपनी गलती पर पश्यमान होकर मेरी सुधि ले ले और .बचा ले मुझे वीरान होने से । वरना ये हीरा जनम व्यर्थ ही गुम जाएगा।न मैं बचूंगी और न  तुम। 

                तुम्हारी धरती माँ।

निर्मला जोशी

 हलद्वानी देवभूमि उत्तराखण्ड

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