आजादी

राकेश चंद्रा

  अपने देश में सड़कों पर चलने का मतलब है आज़ादी। ऐसा लगता है कि लोग घरों से निकलकर जब सड़कों पर उतरते हैं तो उन्हें पूरी आज़ादी का मतलब समझ में आता है। इसीलिये तो वे बेपरवाह होकर बिना किसी बंधन के स्वयं को विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त करते हैं। सड़कों पर चलते हुए किसी छोटी सी बात पर खिलखिलाकर अथवा अट्टहास करते हुए हँसते देखना आम बात है। प्रायः अपने घरों में भी लोग इस प्रकार से हँसते हुए कम देखे जाते हैं-विशेषकर आज के समय में जहाँ तनावमुक्त होना एक बड़ी बात है। इसी कड़ी में सड़क पर चलते हुए मोबाइल फोन से बात करना भी एक विशिष्ट उदाहरण है। आज के समय में मोबाइल फोन की पहुँच आम आदमी तक हो गई है। कुछ लोग तो चलते-चलते ही मोबाइल से बातें करने लगते हैं जबकि कुछ समझदार लोग सड़क से हटकर एकान्त खोज कर ही बात करना पसन्द करते हैं। पर दोनों ही स्थितियों में एक बात उल्लेखनीय है। यहाँ आजादी का सन्दर्भ स्पष्ट रूप से समझ में आता है। प्रायः घर में बातें करते समय बात करने वाला बड़े-बूढ़ों, स्त्रियों अथवा बच्चों का ख्याल रखता है और अपनी आवाज़ को तद्नुरूप एडजस्ट करता है। परन्तु सड़क पर ऐसा कोई बन्धन उसे महसूस नहीं होता है। सड़क पर और लोग भी चल रहे हैं या अगल-बगल मकानों में लोग रह रहे हैं या फिर कोई स्कूल ऐसा भी हैं जिसमें कक्षाएँ चल रही हैं और निकट के पार्क में बच्चे खेल रहे हैं या कुछ बुजु़र्ग उक्त पार्क की किसी बेंच पर बैठकर फुरसत के क्षणों का आनन्द ले रहे हैं- ये सब बातें उसके लिये बेमानी हो जाती हैं जिसकी हथेलियों में मोबाइल का स्पर्श मानो अतिरिक्त उर्जा का संचार करता हुआ प्रतीत होता है। इसीलिये तो वह व्यक्ति विशेष मोबाइल पर बातें करते समय अट्टहास भी करता है तो आवेश में आकर बहस-फिर गर्मागर्म बहस और आगे गालियों की गड़गड़ाहट भी करने से नहीं चूकता है। गालियों की बात क्या कहें- कई नौजवान पीढ़ी के प्रतिनिधि मोटर बाइकों पर फर्राटे भरते हुए बात-बात पर बकौल तकिया कलाम अपने वाक्यों में इनका प्रयोग करते हैं। अक्सर ये गालियाँ अश्लील ही होती हैं क्योंकि नौजवान हो या अधेड़, ऐसी गालियाँ लोगों को रोमांचित तो अवश्य करती होंगी; या आधुनिक संदर्भ में कहें तो ‘‘थ्रिल’’ उत्पन्न करने में अवश्य सहायक होती होंगी वरना साधारण सी बातों में माँ-बहन के पवित्र रिश्ते को गाली के रूप में प्रकट करने का क्या औचित्य हो सकता है? खैर, इसके अलावा भी जो बात ध्यानाकर्षण योग्य है वह यह कि ऐसा करते समय मोबाइल पर बात करने वाला व्यक्ति यह भूल जाता है कि उसके आस-पास के परिवेश में जो लोग पर चल रहे हैं या फिर घरों में रह रहे हैं उनको साफ-सुथरी जिंदगी जीने का हक है। वे लोग संभ्रांत श्रेणी के लोग हैं- सभी कुलीन न सही पर कम से कम सड़कों पर चलते समय अपशब्दों का प्रयोग तो नहीं करते हैं। या फिर जोर-जोर से बोलकर या फोन पर लड़ाई-झगड़े की भाषा उच्च स्वर में बोलकर लोगों के शाँत जीवन में खलल तो नहीं डालते हैं। सड़क पर चलना अनुशासित होने का प्रतीक है। सड़क पर चलते समय ही लोगों को हमारी सभ्यता एवं संस्कारों के दर्शन होते हैं। तो क्या एक अच्छा नागरिक बनना हमारी आदत में नहीं है? या फिर आज़ादी का मतलब समझने में हमने कोई भूल की है? प्रश्न कई हैं पर उत्तर सबके पास है- बस अन्तर्मन को टटोलने की बात है! आइए, एक प्रयास तो बनता है!!


राकेश चंद्रा

लखनऊ

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