राकेश चंद्रा की कलम से

 

अच्छा हो मन के विकार को उगलें

यूं तो अपने देश में राष्ट्रीय शर्म के कई बिन्दु हो सकते हैं, यथा गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, बाल वेश्यावृत्ति, बलात्कार, किसानों की आत्महत्या आदि, पर कतिपय सामाजिक वृत्तियां भी ऐसी हैं जो न केवल उपरोक्त के अनुक्रम में राष्ट्रीय शर्म की श्रेणी में आती हैं, वरन विदेशी पर्यटकों की दृष्टि में हमें उपहास का पात्र बनाती हैं। ऐसी ही एक न छूटने वाली वृत्ति है, सड़कों पर सरेआम थूकना। जी हां, घर से निकलते ही हम कहीं भी थूक सकते हैं। सड़कों के अलावा कार्यालयों, सिनेमा हाल परिसर, कोर्ट-कचहरी परिसर से लेकर अत्याधुनिक मॉल्स में कहीं भी जरा सी उपयुक्त जगह पाकर हम थूकने में नहीं चूकते। दीवारों के कोने, गलियारे, सड़कों पर कहीं भी, यहां तक कि गलियों में मकानों के ऊपरी तल पर रहने वालों से भी नीचे गुजरने वालों को प्रसाद स्वरूप थूक-दान का सौभाग्य अक्सर प्राप्त होता रहता है। फिर चाहे थोड़ी देर के लिये ही सही, महाभारत का सूक्ष्मरूप मंचन क्यों न होता हो! 

        यहां यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि क्या हम घर से बाहर निकलने से पूर्व थूकदान का अनुष्ठान पूर्ण नहीं कर सकते? संभवतः इसका एक प्रमुख कारण यहां की जलवायु है। घर से बाहर निकलते ही हवा में प्रचुर मात्रा में घुले धूलकण श्वास लेने के साथ ही मुंह के अन्दर प्रवेश करते हैं और फलस्वरूप छींकना व थूकना अवश्यम्भावी हो जाता है। इसके अतिरिक्त श्वास रोगों से युक्त व्यक्तियों के लिये भी उक्त क्रिया आवश्यक हो जाती है। इसके अतिरिक्त कभी-कभी मनुष्य द्वारा सामने से आ रहे दूसरे मनुष्य के प्रति अपनी ईष्या, द्वेष व क्रोध का इजहार करने के लिये भी अनावश्यक रूप से विष्ठा त्याग किया जाता है जिसको समझने के लिये थूकते समय उस व्यक्ति की मुखाकृति विशेष रूप से दर्शनीय होती है। इसके अतिरिक्त थूकने का एक प्रमुख कारण पान का सेवन भी है। पान खाकर यदि पान की पीक को विभिन्न मुद्राओं में थूका न जाए तो लोग पान खाने वाले को बेवकूफ समझने की भूल कर सकते हैं। खासकर जब सामने वाले के समक्ष अपना रोब गालिब करना हो तो पान खाकर पीक को बाहर निकालने की अदा अत्यन्त दर्शनीय होती है। पान के अलावा गुटखा, तम्बाकू आदि खाने वालों के लिए भी थूकने की विवशता आसानी से समझी जा सकती है। पर इस प्रकार सरेआम सड़कों, कार्यालयों की दीवारों के कोनों एवं सार्वजनिक स्थानों पर थूकने में न केवल गंदगी फैलती है बल्कि बीमार मनुष्यों की विष्ठा से वायु-जनित बीमारियों के संक्रमण का भी खतरा बना रहता है। इसके अतिरिक्त जब विदेशी पर्यटक हमारी इस क्रिया को देखते हैं तो उनका रवैया भी हमारे प्रति घोर उपहास का हो जाता है। आखिर इस बुराई का निदान क्या है? यद्यपि हम एकाएक सम्पूर्ण प्रयास करके भी इस समस्या  का जड़ से निदान नहीं कर सकते, पर प्रयास अवश्य कर सकते हंै। कार्यालयों, सिनेमा हाल एवं अन्य बन्द स्थानों में यथास्थान थूकदान रखवाने से थूकने वालों को यह वैकल्पिक अवसर प्राप्त होगा कि वे नियत स्थान पर ही थूकंे। वर्तमान में सभी कार्यालयों आदि में ऐसी  व्यवस्था न होने से लोग दीवारों के कोनों को पीकदान निस्तारण केन्द्र के रूप् में प्रयोग करने लगे हैं जो सर्वथा अनुचित है। सड़कों के किनारे भी कुछ कुछ दूरी पर यथासंभव ऐसी व्यवस्था करा दी जाए तो स्थिति में सुधार हो सकता है। इसके अतिरिक्त लोगों को भी यह ध्यान रखना होगा कि सड़क के किनारे यदि थूकना अपरिहार्य हो तो सड़क के किनारे अवस्थित नालियों, नालों एवं कूड़ादानों आदि का प्रयोग किया जा सकता है। घर से निकलने के पूर्व भी यथावश्यक गले को अच्छी तरह से साफ करने, आवश्यक दवाइ्रयों आदि का सेवन करके निकलना भी स्वच्छता एवं साफ-सफाई की दिशा में महत्वपूर्ण कदम सिद्ध होगा। तो आईये संकल्प लें कि अपने शहर को इस दुव्र्यसन से हर हाल में सब मिलकर मुक्ति  दिलाने के लिए अथक प्रणास करेंगे और यदि निस्तारण करना ही है तो मन-मस्तिष्क में जमे हुए विकारों का विष्ठादान करेंगे, वह भी उपयुक्त स्थल पर!!


रफ्तार

     रफ्तार आज की दुनिया के सबसे अधिक सम्मोहक शब्दों में से एक है। युवापीढ़ी तो मानो रफ्तार के लिये पागल है पर बड़े भी कम नहीं हैं! हरेक व्यक्ति उपलब्धियों को पाना चाहता है वह भी कम समय में! यानि की ज़िन्दगी की दौड़ में वह रफ्तार के साथ आगे बढ़ना चाहता है। भले ही दूसरों के सरों पर पैर रखकर ही क्यों न दौड़ना पड़े। पर यहाँ मैं रफ्तार का संदर्भ सड़क पर चलने वाले वाहनों तक ही सीमित रखूँगा जिनकी ऱफ्तार यदि किंचित भी सीमित हो जाए तो उन पर सवार चालकों को स्वयं अथवा उनके परिवारों को असीमित दुःख से निजात मिल सकेगी। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् सड़कों के निर्माण में आशातीत वृद्धि हुई है। न केवल संख्यात्मक रूप से बल्कि गुणात्मक रूप से भी इस प्रगति का आकलन स्वतः किया जा सकता है। इसी प्रकार, आटोमोबाइल क्षेत्र में भी विगत वर्षों में दिन दूनी रात चैगुनी वृद्धि हुई है। वाहनों के नित नये-नये माॅडल सड़कों पर दिखायी देते हैं जो न केवल अपनी चमक-दमक बल्कि अपनी उच्च तकनीक से भी प्रभावित करते हैं। 

       पर बेहतर सड़क-मार्गों एवं बेहतर मोटर वाहनों के बीच सम्भवतः हम लोग बेहतर तालमेल नहीं बैठा सके हैं जिसका प्रमाण है वर्षानुवर्ष होने वाली सड़क दुर्घटनाएँ जिनमें हजारों-लाखों लोग काल का ग्रास बनते हैं। इसका एक प्रमुख कारण है रफ्तार-यानि की वाहनों को निर्धारित गति से कहीं अधिक गति देते हुए चलाना या फिर कहें-दौड़ाना जिससे होने वाली दुर्घटनाओं का दौर एक चिरन्तन सत्य का रूप ले चुका है। पर यह रफ्तार का सिलसिला केवल राजमार्गों तक ही सीमित हो ऐसा नहीं है। भीड़-भाड़ भरे बाज़ार के रास्तों में या नगरीय क्षेत्र में कहीं भी हर दिन ऐसे रफ्तार के कहर से रूबरू हुआ जा सकता है। शहरी क्षेत्र में चार पहिया वाहनों के अतिरिक्त दो पहिया वाहनों का चलन भी बहुतायत में है। विशेषकर युवा पीढी के लिये रफ्तार का रोमांच सर्वाधिक है। काफी हद तक फिल्मों से प्रभावित होकर युवा पीढ़ी दोपहिया वाहनों को तेज गति से दौड़ाने में सम्भवतः अधिक रोमांच या थ्रिल का अनुभव करती है! अब तो महनगरों में ‘बाइकर्स गैंग’ जैसे शब्द भी चलन में है जिसके परिदृश्य में कई युवाओं की टोली बाइकों पर सवार होकर रफ्तार से अपने वाहनों को गति देते हुए विभिन्न प्रकार के स्टंट भी करने का उपक्रम करती है और ऐसा करते हुए कई युवक मृत्यु का वरण भी कर चुके हैं। उनके इस कृत्य से नागरिकों को जो परेशानी होती है वह अलग। कई बार निर्दोष नागरिक या तो चोटिल हुए हैं या फिर उनके जीवन की भी इहलीला समाप्त  हुई है। 

     यहाँ यह भी उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि अब रफ्तार का प्रकोप मोहल्ले व गलियों में भी दिखाई पड़ने लगा है। युवा पीढ़ी अपने दोपहिया वाहनों को तेजी से दौड़ाते हुए जब मोहल्लों की अपेक्षाकृत कम चैड़ी सड़कों पर तेजी से दौड़ाते हैं तो आस-पास चलने वाले नागरिकों, विशेषकर बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं को किन विषम परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ता है इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। इतना ही नहीं, अब तो रफ्तार के साथ-साथ बिना प्रभावी साईलेन्सर वाली गाड़ियों को भी आसानी से रास्तों पर दौड़ाते देखा जा सकता है जिनसे इतना शोर उत्पन्न होता है कि कुछ देर के लिये आस-पास के लोग तो सहम ही जाते हैं। प्रश्न यह है कि क्या कतिपय लोगों के लिये नियम-कानून, अनुशासन व प्रदूषण-मुक्त समाज जैसे शब्दों का कोई अर्थ नहीं है? पर दंड मात्र की अवधारणा से इस प्रकोप को रोका जाना सम्भव नहीं है। हर अच्छे संस्कार की प्रारम्भिक पाठशाला घर है जहाँ अभिभावक के रूप में बच्चे के माता-पिता उसका मार्गदर्शन करते हैं। तत्पश्चात् विद्यालय में उसको विधिवत दीक्षा प्राप्त होती है। क्यों न शुरूआत घर व विद्यालय से की जाए ताकि कुसंस्कारों से भविष्य की पीढ़ी को बचाया जा सके? कार्य कठिन तो है पर असम्भव नहीं आइये संकल्प का एक दीप प्रज्जवलित करें!


शराब और दुघर्टनाएं

भारत सरकार के राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2015 में लगभग डेढ़ लाख लोगों की मृत्यु सड़क दुर्घटनाओं के चलते हुई थी। इनमें लगभग एक लाख लोग ऐसे थे जो इन दुर्घटनाओं के लिये सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं थे। वे लोग निरपराध थे परन्तु उन्हें नियमों का पालन न करने वालों एवं कानून तोड़ने वाले व्यक्तियों के कृत्यों की सजा भुगतनी पड़ी, अर्थात् कुल मरने वालों में से तीन चैथाई ऐसे लोग थे जिन्हें अनावश्यक रूप से अपनी जान गँवानी पड़ी। उनका दोष मात्र इतना ही था कि वे सड़क पर चल रहे थे! यूँ तो सड़क दुर्घटनाओं के कारण अनेक हैं पर एक प्रमुख कारण शराब पीकर वाहन चलाना भी है। जो लोग ऐसा करते हैं वे या तो यात्रा की शुरूआत में ही शराब का सेवन कर लेते हैं या फिर रास्ते में उपलब्ध शराब के ठेकों या लाईसेन्सी दुकानों से खरीदकर अपनी प्यास बुझाते हैं। राजमार्गों पर होने वाली दुर्घटनाओं में अक्सर यह पाया जाता है कि चालक शराब पीकर गाड़ी चला रहा था। शायद गाड़ी चलाने वाले यह सोचते होंगे कि शराब का सेवन करने से उनकी चैतन्यता में अभिवृद्धि होगी या फिर उन पर थकान का असर कम होगा! कारण चाहे जो भी हो, असर ठीक उल्टा होता है। शराब के असर से शनै-शनैः अंग-प्रत्यंग शिथिल होने लगते हैं और मस्तिष्क का नियन्त्रण भी कमजोर पडने लगता है। फलस्वरूप दुर्घटनाओं की आवृत्ति प्रारम्भ हो जाती है। राजमार्गों के किनारे भी शराब की उपलब्धता लाईसेन्सी दुकानों अथवा चोरी-छिपे ढाबों आदि में आसानी से सुनिश्चित हो जाती है। इस दिशा में हमारे देशकी सर्वोच्च अदालत मा0 सुप्रीमकोर्ट ने अभी हाल में ही एक ऐतिहासिक निर्णय दिया है जिसमें पूरे देश में राजमार्गों के किनारे शराब की दुकानों को निषेधित कर दिया गया है जिसका सीधा मतलब यह है कि अब राजमार्गों के किनारे शराब की दुकानें नहीं खोली जा सकेंगी। मा0 न्यायालय ने अपने निर्णय में यह कहा है कि मानव जीवन अमूल्य है। इस प्रकार उक्त निर्णय में पीकर गाड़ी चलाने के फलस्वरूप होने वाली सड़क दुर्घटनाओं को प्रखर रूप से अभिव्यक्त किया गया है जिसके सम्बन्ध में बातें तो की जाती थीं पर कोई ठोस कार्यवाही नहीं की जा सकी थी।

उक्त निर्णय में सरकार से इस दिशा में प्रभावी अनुश्रवण की भी अपेक्षा की गई है ताकि में भविष्य में होने वाली अकाल मृत्यु की अनेकानेक घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो सके। यद्यपि मा0 न्यायालय एवं विभिन्न सरकारों द्वारा अपने कत्र्तव्यों को मूर्त रूप देेने का प्रयास किया जाता है पर हमारे द्वारा अपनी सोच में बदलाव न करने के कारण इन प्रयासों में अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाती है। यदि हम यह सोचकर अपनी यात्रा को प्रारम्भ करें कि हमें अपनी सुरक्षा करनी है और अपने परिवार के भविष्य को उज्जवल रखना है तो निःसन्देह हम सतर्क रहकर अपनी यात्रा पूरी करेंगे और सुरक्षित रहकर अपने गन्तव्य तक पहुँचेंगे। इस मनोदशा में शराब या किसी अन्य नशे की वस्तु या पदार्थ का सेवन करने की ओर हमारा ध्यान भी न जाएगा। जहाँ तक थकान का प्रश्न है अब तो हर राजमार्ग पर स्थान-स्थान पर होटल, रेस्तराँ व ढाबे इत्यादि अवस्थित हैं जहाँ कुछ देर रूक कर सुस्ताकर हम आगे की यात्रा प्रारम्भ कर सकते हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि यात्रा को सुरक्षित एवं सुखमय बनाने हेतु अनेकानेक विकल्प मौजूद हैं और शराब तो कोई विकल्प है ही नहीं! इसका सेवन तो हमें अधिकांशतः मृत्यु की ओर ही खींचता हैं। अतः आवश्यकता है शांत मन से गहन चिंतन करने की जिससे इस विभीषिका से बचा जा सके और चिंतन करने के लिये किसी शुभ मुहूर्त की आवश्यकता नहीं होती! ऐसा सुअवसर हर समय हमारे-आपके लिये उपलब्ध है-निःसन्देह!


राकेश चंद्रा

610/60, केशव नगर कालोनी

सीतापुर रोड, लखनऊ, उत्तर-प्रदेश-226020

दूरभाष नम्बर : 9457353346

Rakeshchandra.81@gmail.com

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