कमलेश झा
इस चकाचौंध भारी दुनिया मे रिश्ते हो रहे तार तार
क्या अपना क्या सगे संबंधी रिस्ते हो रहे तार तार।।
अपने तो बस स्व स्वार्थ सहित अपना फायदा देख रहा
अब बोलो इस कष्ट को मानव कैसे कैसे झेल रहा।।
रिस्तो के इस गहराई में अब केवल है निज स्वार्थ
बनिया जैसा सोचता है इस रिस्ते से अब कितना आश।।
समाज सहित अब खून के रिस्ते पानी पानी हो रहा
अब किससे करें शिकायत जब अपना ही गड्ढा खोद रहा।।
अगर गिरे उस गड्ढे में फिर भी पुकारेंगे अपनों का नाम
वेशक तुम कुदाल लेकर आना तुम करना अपना ही काम।।
नफा नुकसान वाले रिस्ते से चल न सकेगा तेरा काम
एक न एक दिन आना होगा तब लेना होगा अपनो से काम।।
अगर हम मानव बनकर आये हमें निभाना अपनो का साथ
जय पराजय और छल कपट से बचाकर रखना अपने को आप।।
जीवन के इस आपाधापी में आगे बढ़ने का बना रहे ललक
लेकिन अपनो को रौंदकर आगे बढ़ना ये कैसा है ललक।।
महान बनने के लिए जरूरत एक प्रसस्त पथ हो निर्माण
दूसरों पर छीटें दे कर तुम कैसे बन सकते महान।।
मानव जीवन बडा कठिन है इसको सरल बनाना काम
घर परिवार संग कुटुम संबंधी सबसे संबंध जोड़ना का काम ।।
हम मानव में बेशक़ हो सकता है स्पर्धा जीतकर बनना खास
लेकिन समाजिक सहित खून के रिश्तों को क्यों करना है तार तार।।3
श्री कमलेश झा
शिवदुर्गा विहार
फरीदाबाद