पुस्तक समीक्षा :आनन्द मंजरी ( मुकरी संग्रह)

 समीक्षा कृति- आनन्द मंजरी ( मुकरी संग्रह) 

रचनाकार- त्रिलोक सिंह ठकुरेला 

प्रकाशक - राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर 

समीक्षक- दयानंद जायसवाल 

"आनन्द मंजरी"  त्रिलोक सिंह ठकुरेला, आबू रोड, राजस्थान द्वारा रचित  प्रथम मुक़री-संग्रह है। मुकरियाँ पहेलियों का ही एक मनोरंजक रूप है। इनका उद्देश्य बुद्धि-चातुर्य की परीक्षा लेना होता है। प्रस्तुत संग्रह में कुल एक सौ एक मुकरियों का संकलन है। इन सभी मुकरियों का उत्तर 'साजन' होने का भ्रम से होता है, पर नायिका बड़ी चतुराई से उनके उत्तर देती हैं । इससे पाठक के मन में कौतूहल होता है। इसके शिल्प-विधान को देखें, तो शब्दों में मात्रिक व्यवस्था के साथ-साथ प्रथम दो पंक्तियाँ सोलह मात्राओं की होती हैं। यानि, प्रथम दो पंक्तियाँ गेयता को निभाती हुई शाब्दिकतः सोलह मात्राओं का निर्वहन करती हैं। तीसरी पंक्ति पन्द्रह, सोलह या सत्तरह मात्राओं की हो सकती है । कारण कि, तीसरी पंक्ति वस्तुतः बुझवायी हुई वस्तु या संज्ञा पर निर्भर करती है।  फिर, चौथी पंक्ति दो भागों में विभक्त हो जाती है , चौथी पंक्ति के दूसरे वाक्य में आये निर्णायक उत्तर से भ्रम या संदेह का निवारण होता है । प्रथम तीन पद के माध्यम से साजन , प्रियतम या पति के विभिन्न रूप परिलक्षित होते हैं।  चौथी  पंक्ति का प्रथम भाग ऐसा ही कुछ समझने को कहता और प्रश्न भी करता है। परन्तु उसी पंक्ति का दूसरा भाग न सिर्फ़ उस बूझने का खण्डन करता है, अपितु कुछ और ही उत्तर देता है जो कि कवि का वास्तविक इशारा है।  मुकरियों या कह- मुकरियों का प्रारम्भ, पहेलियों की तरह ही, अमीर खुसरो से माना जाता है। उसी परंपरा को आगे बढाते हुए भारतेन्दु हरिश्चन्द्रजी ने अपने समय में इन पर बहुत काम किया।

इसके बाद क्रमशः छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और आज यानि नई कविता के दौर आए, पर इन दौर के किसी भी रचनाकार का ध्यान कह-मुकरी की तरफ नहीं गया ! आज के इस दौर में जब अतुकांत और मुक्तछंद कविता अपने चरम पर है,  कह-मुकरी की बात करना अपने आप में अलग प्रतीत होने वाला विषय हो गया है ! यदि इस अलग प्रतीत होने वाले विषय पर अगर थोड़ा सा विचार करें तो इसमें काफी कुछ अर्थपूर्ण साहित्यनुभूति छिपी मिलती है ।

  वर्षों बाद इस कृति को डॉ. बहादुर मिश्र ने आगे बढ़ाते हुए एक अभिनव प्रयोग किया। क्रमशः अब तो विभिन्न रचनाकारों में इसकी अभिरुचि जगी और आज त्रिलोक सिंह ठकुरेला की "आनन्द मंजरी " पढ़ने को मिली।  इन्होंने इनके माध्यम से हास्य, तीखे व्यंग्य, दर्शन आदि के साथ-साथ वर्त्तमान सामाजिक-राजनैतिक, प्राकृतिक , जीव-जगत , स्त्री के श्रृंगार और परिधान से संबंधित तथा रसोई और खान-पान से संबंधित घटनाओं पर भी लिख कर बेहतर प्रयोग किया है। इन्होंने जो प्रमुख विषयों को आधार बनाकर मुकरियाँ रची हैं, वो इस प्रकार हैं - कहीं डंडा, मोबाइल, कम्प्यूटर, हीटर, तोता ,चंदा, ताला, माला, झुमका, मच्छर, दर्पण, साड़ी, सोना, भौर, पैसा, उल्लू, हाथी, सपना, सावन आदि तो कहीं चंदा, तारा, फुलवारी, सावन, सवेरा, चातक, जाड़ा, महंगाई, इत्यादि।

        " दिन में घर के बाहर भाता

           किंतु शाम को घर में लाता

          कभी पिलाता तुलसी काढ़ा 

          क्या सखी, साजन? ना सखी,जाड़ा।"

   "द्वारे आकर नित्य पुकारे 

    मैं भी दौड़ी आऊं द्वारे

   प्रेम-पयोधर, परम् वियोगी

   क्या सखी, साजन? ना सखी, जोगी।"

           "वह आये तो तन मन हरसे

            चारों ओर रंग रस बरसे

             सबको भाती हंसी ठिठोली

            क्या सखी, जोकर? ना सखी , होली।"

इसप्रकार इनकी मुकरियों में पाठक को बाँधने की सामर्थ्य है। अनेकरसता और थकान को दूर करने तथा मौसमी लोकगीत गाने के साथ-साथ एक दूसरे से छेड़-छाड़ करते हुए प्रश्नोत्तरी गायन की शैली विकसित है। रचनाकार को हार्दिक बधाई एवं अशेष शुभकामनाएं।

रचनाकार के सम्पर्क सूत्र- 9460714267

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