शास्त्री सुरेन्द्र दुबे (अनुज जौनपुरी) की कलम से


गीत बा कवि लोगन ध्यान से सुनिहा


तू मुझको गर पसंद कर,

मैं तुझको करूंगा।

तूं जैसा भी लिखेगा,

मैं वाह वाह करूंगा,

झुक झुक कर तेरा सजदा,

सौ सलाम करूंगा।।



कुछ इस तरह के हाल दिखे,

अब कवियों की जमात में।

भावों में तारतम्यता के

जैसे अभाव में ।

फिर भी मै लेखनी पर  अभिमान करूंगा,

सौ सलाम करूंगा।

तूं मुझको कर पसंद तो ,

मैं तुझको करूंगा।

झुक झुक कर तेरा सजदा,

सौ सलाम करूंगा।।


जहां वो खड़ें हैं आज, कभी हम भी वहीं थे।

सबके दुराव को झेलते ही बढ़े थे,

जो आज कुछ मिला है,

सब अपनो की देन है।

अपमान को सम्मान समझ मान करूंगा।

टूटी हुई कलम ही सही,

शबद संधान करूंगा।

जो सच को है पसंद वही गान लिखूंगा।।

झुक झुक कर तेरा सजदा,

सौ सलाम करूंगा।।


कवियों की बिरादरी में

यह दुर्भाव गलत है।

अपनो से इस तरह का

यह वर्ताव गलत है।

लिखता हो वो चाहे

जैसा ,

पर भरता भावों में वेदना,

कोशिश तो कर रहा है

जगाने की संवेदना ।

ऐसे नवोदित कवियों का,

मैं सम्मान करूंगा।

जैसा भी तुम लिखेंगे।

सौ सलाम करूंगा।।


खूब पेट भरता है

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नेताओं का भाषण से

वक्ताओं  का  शब्दों से

संतो का संत समागम से

बनियों का खूब धनागम से

विद्यार्थियों का विद्यार्जन से

कवियों का संवेदनाओं से

रोगियों का दवाओं से

भूखों का भोजन से

पेट खूब भरता है।।


मुर्खों का स्ववंदन से,

हत्यारों का क्रंदन से

घुसखोरों का नोटों से,

चुगलखोरों का चुगली से,

समझदारों का बातों से

लतखोरों का लातों से

चोरों का हवालातों से

भक्त का भगवान से

खूब पेट भरता है।।


स्वार्थी का स्वार्थ से

परमार्थी का परमार्थ से

अध्यापन का अध्ययन से

अध्यात्म का आत्मचिंतन से

सत्यार्थी का सत्यशोधन से

वैज्ञानिकों का विज्ञान से

ज्ञानी का ज्ञानार्जन से

दानी का दान से

खूब पेट भरता है।।


गद्दारों का गद्दारी से

लबारों का लफ्फाजी से

लेखकों का लिखावट से

मुनाफाखोरों का मिलावट से

ईमानदारों का ईमानदारी से

बेईमानों का बेईमानी से

पानीदारों का पानी से

खूब पेट भरता है।।


चरण छोड़ जाऊं कहां प्रभु तुम्हारा


दुष्ट जीवों ने उत्पात जब जब मचाया।

मुनी संतजन के लहू को बहाया,

संहार पल में किये दुष्ट सारे,

तुमने अवतार लेकर जगत को संवारा।

तेरे बिन जहां में न कोई हमारा।।


हे सियाराम तेरे ही हम आसरे हैं।

चरण छोड़ जाऊं कहां प्रभु तुम्हारा।।


धरा धंस रही है गगन तप रहा है,

रही सूख गंगा की अविरल है धारा।

नहीं राह सूझे न सूझे किनारा,

उतर आये दिनकर तपिश ले धरा पर,

जले तन वतन वन जलें जीव सारा।।


हे सियाराम तेरे ही हम आसरे हैं।

चरण छोड़ जाऊं कहां प्रभु तुम्हारा ।।


नहीं भ्राता लक्ष्मण भरत शत्रुघन हैं,

नहीं कोई रावण का होता दहन है।

नहीं नीलनल अंगदादि कपीश्वर,

पवन सुत मगन राम जी तव भजन में,

बांधे पाप सागर को सेतू हमारा।।


हे सियाराम तेरे ही हम आसरे हैं।

चरण छोड़ जाऊं कहां प्रभु तुम्हारा।।


लगी आबरू दाव पर है अनुज की,

बताओ हे राघव किसे मैं पुकारूं।

नहीं रुक्मिणी राधा औ द्रौपदी हूं,

पुकारूं तो दौड़े चले आये कान्हा,

नहीं वेद गंगा का मैं अधिपती हूं।

अनाथों के हो नाथ तेरा सहारा।।


हे सियाराम बस तेरे ही आसरे हैं।

चरण छोड़ जाऊं कहां प्रभु तुम्हारा।।


चरण छोड़ जाऊं कहां प्रभु तुम्हारा।।


*@काव्यमाला कसक*

शास्त्री सुरेन्द्र दुबे (अनुज जौनपुरी)

kavyamalakasak.blogspot.com


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