उत्कृष्ट गर्व नक्षत्र अटल !!
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राजनीति के भीष्म पितामह ,
उत्कृष्ट गर्व नक्षत्र अटल ।
रचना शील काव्य गुण धारी ,
लोक तन्त्र स्तम्भ पटल ।।
जय विज्ञान घोष ,उदघोषक ,
राष्ट्र समर्पण , मन निश्छल ।
सेवा देश प्रगति आयामी ,
प्रेरक चरित्र ,सह मौन प्रबल ।।
सदा ए शरहद के अनुगामी ,
दूर दृष्टि , कावेरी -जल ।
मजदूरों का शोषण हृदय ,
दृश्य दिखाता ताजमहल ।।
परमाणु वैश्विक सुदृढ शक्ति,
स्वर्णिम चतुर्भुज ,वतन सबल ।
पांचजन्य ,वीर अर्जुन सैंग ,
राष्ट्र धर्म ,कर्तव्य सचल ।
संकल्पित धर्म गठबंधन ,
नेतृत्व प्रमुख ,हलचल के हल ।
भारत रत्न शृद्धेय संदेशक ,
भुला ना सके ना ,
जल -नभ -थल ।।
वृहद सख्सियत प्रणव नमन !!
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वेहद अहम सादगी दर्शन ,
सहिष्णु , वहुलतावाद अमन ।
मुखर -प्रखर व्यक्तित्व सजग,
जय-जय-जय,जय हिन्द -रतन ।।
सरल स्वभाव, स्नेह ममतामय,
शालीन - शील , गरिमा उद्यम ।
मौलिक ज्ञान ,पारखी - दृष्टि ,
प्रासंगिक युग - युग उत्तम ।।
सम्बल- सहमति राजनीति-सम ,
नैतिक मूल्य ,प्रतिबद्ध चमन ।
संस्कृति ज्ञान, विज्ञान- केन्द्र,
जीवन विराट, निश्छल तन-मन ।।
आभास उपस्थिति वैचारिक,
परिपक्व विरासत , आदर्शतम ।
अद्भुत युक्ति-विलक्षण प्रतिभा ,
मूल्य -मान्यता , उत्तम धन ।।
कर्मवतन-हित विस्मृत नहिं हो,
दल छल मुक्त शक्ति स्मरण ।
उदारवाद छवि, शख्त प्रशासक,
वृहद सख्सियत , प्रणव नमन ।।
जिन्दगी बर्वाद होती , बाल-श्रम अभिशाप है
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मासूमियत मजदूर बनती , पारिवारिक पाप है ।
जिन्दगी बर्वाद होती , बाल-श्रम अभिशाप है ।।
राग अध्ययन छूट जाते , फिर नशे में टूट जाते ।
साथ ही सपने सुहाने , गम लिये ही फूट जाते ।।
लूटती यह कुप्रथा जग , लाभदायक श्राप है।
जिन्दगी बर्वाद होती , बाल-श्रम अभिशाप है ।।
अन्त ऐसी रीति का हो, मन्त्र पाना चाहिए ।
होनहारों को व्य्वस्थित , तन्त्र लाना चाहिए ।।
हम भी ओढ़े हैं कयामत , राह में रँग छाप है ।
जिन्दगी बर्वाद होती , बाल-श्रम अभिशाप है ।।
खुद सदा झेलें नदी को,अब किनारे तुम नहीँ
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खुद सदा झेलें नदी को , अब किनारे तुम नहीं ।
है प्रभु ,अपना सहारा , बेसहारे हम नहीं ।।
आर्थिक हानि भी करते , फिर कहाँ? अपने सजे ।
खौप के तुम शक्ति दाता ,
हम कहाँ ? सपने भजे ।।
राजशाही तुम लिये हो , झूँठ प्यारे हम नहीं ।
खुद सदा झेलें नदी को , अब किनारे तुम नहीं ।।
हम जो कहते हैं करेंगे , हर मुकुट जो लाभ हैं ।
आज तक के सब अभागों, को हमेशा त्याग दें ।
रोशनी संघर्ष की ही , जग जनम कारे नहीं ।
खुद सदा झेलें नदी को ,अब किनारे तुम नहीं ।।
गीत लिखकर गीतिका भी, प्रीतिका की शान है ।
दान जो पुरखों ने दीना , रीति की पहिचान है ।।
ऐसी परिभाषाओं से ही , सुधि अनुज हारे नहीं ।
खुद सदा झेलें नदी को , अब किनारे तुम नहीं ।।
मंदारमाला छन्द
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आकाश भाये सुहाने तराने न ,
जाने कहानी खयालात सी ।
आभास आगाज आवाज नाराज,
दीखे जुबानी सवालात सी ।।
पौधे लगा दो जगा दो हवा लोक,
आशीष वाणी मुलाक़ात सी ।
वाचाल हालात रोये धरा जान,
तारीफ मानी दया रात सी ।।
डॉ अनुज कुमार चौहान "अनुज"
अलीगढ़ , उत्तर प्रदेश ।