सब एक ही पिता की सन्तान....!

 फादर्स डे... स्पेशल...

डॉ रमाकांत क्षितिज

कुछ समय पहले, श्रीमती जी मेरे लिए कपड़ा लेने गयीं थी। साथ मे पुत्र भी थे। दुकानदार ने श्रीमती जी से पूछा मेरे बारे में पूछा ' कितने बड़े हैं ? ' बगल खड़े पुत्र ने दुकानदार से कहा ' मेरे जितने बड़े ' यह बात श्रीमती जी ने मुझे बताई। समय कैसे बीत जाता है कि,बेटा किसी से कहता है,पापा मेरे जितने बड़े है।

जिन्हें आप ने गोदी में खिलाया हो। जब वह इस तरह की बात करने लायक हो जाता है। तब यह पल माता पिता दोनों के लिए बहुत सुखद होता है। चूंकि इसी पल का उन्हें वर्षो से इंतजार होता है।

कुछ दिन पहले स्कूल जाने के लिए निकला। तो साथ मे सुपुत्र भी थे। मैं पहली बार उनके पीछे बाइक मोटर सायकिल पर बैठा। सिर्फ दो किलोमीटर जाने में ही एक सुखद एहसास हुआ। जिसे शब्दों में बयां नही किया जा सकता। जिन्हें हम कभी उंगली पकड़कर चलना सिखाते हो। वे जब हमें लेकर चलते है। तब बहुत सुखद एहसास होता है। पीछे बैठे बैठे ही श्रीकांत की बचपन की बहुत सी यादें ताज़ा ही गयीं। इसी तरह तो यह सन्सार आगे बढ़ रहा है। पुत्र पिता बना,फिर पुत्र या पुत्री माता या पिता बनी। इसी तरह न जाने कितने जन्मों की यह यात्रा है। न जाने कितनी बार पिता बने। न जाने कितनी बार पुत्र या पुत्री बने। हम हजारों लाखों ही नही न जाने कितने वर्षों पुराने है। शायद जब समय की गड़ना न भी होती रही हो तब से। बाइक पर हम दो ही दिख रहे है। जबकि यहां तक यात्रा न जाने कितने शरीरों से होकर गुजरी है। तब जाकर यहां पहुँची है। अभी न जाने कितनी यात्रा बाकी है। 

हम सब के न जाने कितने पूर्वज  रहे। हमें नही पता पहली बार मेरे किस पूर्वज ने इंसान का शरीर धारण किया होगा। चूंकि यह भी तो सच है कि,चौरासी लाख योनियों से होता हुआ यह शरीर मिला है। आगे भी यह क्रम चलता ही रहेगा। हम न तो शुरुआत है। हम न ही अंत है। हम सब इंसान ,पेड़ पौधे,नदी,पर्वत सब कुछ बीच की कड़ी ही है। इंसान शरीर न होकर भी शरीर को ही स्वयं मान लेता है। जैसे शीशे ,आईने के सामने हम खड़े हो, तो आईने में हम दिखाई देते है। हम उसमें होते नही। जबकि आंखो से दिख रहा है। कि हम आईने के भीतर है।सच्चाई में  बिल्कुल नही। चूंकि वह हमारा प्रतिबिंब ही है। हम बिम्ब है। इसलिए वह हमारा प्रतिबिंब है। शीशा संसार भौतिक जगत का प्रतीक है। प्रतिबिंब शरीर का प्रतीक है। बिंब उस आत्मा ईस्वर का प्रतीक है। जो सच मे है।  बिना इस बिंब के कोई प्रतिबिंब न हो पाएगा। हमारी यात्रा न जाने कब से न जाने कितनी योनियों से होकर गुजर रही है। और गुजरेगी भी....जीवन मे हम जिन्हें पालते पोषते है। एक वक्त ऐसा भी आता है। जब वे हमें पालते पोषते है। पुत्र श्रीकांत के पीछे बाइक पर बैठना एक सुखद एहसास रहा। 

अब महसूस कर पा रहा हूं। पिता जी भी मेरे साथ फोर व्हीलर या बाइक पर इसी तरह का एहसास पाते रहे होंगे। चंदन  हमेशा पिता जी को याद करा देते है। हम तीनों भी एकदूसरे   के बिम्ब प्रतिबिम्ब ही तो है। वास्तविकता तो यह है कि,सिर्फ शरीर अलग अलग है। हम एक ही है। हम क्या पूरा सन्सार ही। हम तीनों या यूं कहें सारा संसार ही तो,उस ईस्वर का प्रतिबिंब है। जैसे धरती पर जहां भी पानी हो दिन में सूरज सब मे अलग अलग दिखाई देगा। तो क्या सूरज अलग अलग है नही न। ठीक इसी तरह रात में जहां भी पानी होगा। चंद्रमा का प्रतिबिंब वहां वहां अलग अलग दिखाई देगा । जबकि चन्द्रमा तो एक ही है। ठीक इसी तरह ईस्वर एक ही है।उसका प्रतिबिंब अलग अलग,इंसानों, अन्य प्राणियों,वस्तुओं, प्रकृति के रूप में दिखाई देता है। उसी ईस्वर के हम सभी प्रतिबिंब है। अर्थात सब एक ही पिता की संतान है।

संकलन विनोद कुमार सीताराम दुबे

 संस्थापक सीताराम ग्रामीण साहित्य परिषद एवं इंद्रजीत पुस्तकालय जुडपुर रामनगर विधमौवा मड़ियाहूं जौनपुर उत्तर प्रदेश।

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