साहित्यकार राकेश चन्द्रा की रचनाएं

  


तुम्हारी मृग-मरीचिका में भटकती मैं


 नक्षत्रों से भी दूर कहीं

शून्य में हो गये विलीन

छोड़कर तुम मुझको

तिमिर के बाहुपाश में

साथ में सभी स्वजन

किन्तु हैं असमर्थ

न बन सकते सेतु

तुम्हारे और हमारे मिलन के मध्य

न लांघ सकूंगी निपट अकेली

दुःख के विंध्याचल को- दादा ।

मुझे बुला लो.


मुझे ले चलोगे ना तुम दादा के पास,

बोलो प्रिय बन्धु

घर में वो पड़े अकेले

उदर शूल से ग्रस्त, जर्जर

कौन करेगा उनका उपचार

किसके द्वारा चढ़ेगा पथ्य का अर्ध्य.

ले चलो, प्रिय बन्धु मुझे उनके पास

दूंगी उनके आकुल- अन्तर का शान्ति

और करूंगी दिन-रात उनकी सेवा का कृत्य,

डाक्टर साहब, मिलकर आये हैं न आप-

मेरे दादा से- कैसे हैं वो ।

बोलते क्यों नहीं आप क्यूं वाणी है मौन?


दादा देखो- छोड़ दिया इन लोगों ने मेरा साथ

मैं हूं असहाय, मानस के अन्धकार से युक्त

न रोक सकूंगी- हूं ऑसूओं से भी परित्यक्त

बस तामसी मरुभूमि में

भटकती मैं- तुम्हारी मृग मरीचिका में

दादा !

मुझे बुला लो. 


पत्नियां


 वैसे तो पत्नियां बनाती हैं

जीवन को जीने लायक, सुन्दर

और सरस; पर

अन्दर से ये पत्नियां होती हैं

कितनी बेबस !


पत्नियां हंसती हैं सेवा भाव से

जब कभी उनके पति किसी

बेमतलब सी बात पर

करते हैं अकारण अट्टहास;


पत्नियां सहमी-सहमी सी रहती हैं

सुबह और शाम; और सोचती

रहती हैं बार-बार कि

छुट्टियों वाले दिन और दिनों के सापेक्ष

अधिक लम्बे क्यों हो जाते हैं !


पत्नियां मुस्कराती हैं और

निहारती हैं मुग्ध भाव से

जब भी उनके पति

करते हैं उनकी कमजोरियों का बखान

अपनों के बीच .


पत्नियां कोसती हैं जब

उनके पति अपने घटे पुरुषार्थ को लेकर

कोसते हैं सारे जमाने को और

यहां तक कि भगवान को !

पत्नियां तो जीवन सहचरी है,

अर्धांगिनी हैं और

सात फेरों की अनुगामिनी है;


शादी के वचनों को निभाने

में रहती हैं तत्पर

फिर भी, न जाने क्यों

ये पत्नियां

अन्दर से होती हैं कितनी बेबस !

राकेश चन्द्रा

610/60, केशव नगर कालोनी,

 सीतापुर रोड, लखनऊ 

उत्तर-प्रदेश-226020,              

दूरभाष नम्बर : 9457353346

rakeshchandra.81@gmail.com

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