धीरा (ललिल निबंध)

      कछुक दिवस जननी धरि 

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वीणा गुप्त 

  बात है त्रेता की। लंका की अशोक वाटिका में 

"निज पद नयनु दिए,मन राम पदकमल लीन" 

की स्थिति में बैठीं माता जानकी और सुत पवनपुत्र हनुमानजी।भावाकुल अंतर लिए माँ सीता जी को धैर्य बँधा रहे हैं:-

कछुक दिवस जननी धरि धीरा,

कपिन्ह सहित  अइहहिं रधुबीरा,

निसिचर मार तोहि ले जइहहिं

तिहूँ पुर नारदादि जस गैहहिं

"कुछ दिन और धैर्य धारण करो माँ। प्रभु राम आएँगे,राक्षसों का वध कर  आपको यहाँ से लेजाएंगे."कितने सामर्थ्यानुकूल ,दृढ़निश्चय भरे,मर्यादित वचन हैं,सुत के माता के प्रति।

"कछुक दिवस जननी धरि धीरा,"

कोई व्यर्थ बात नहीं। जननी को प्रसन्न करने के लिए कोई ' ठकुरसुहाती' नहीं।कोई  झूठी आस नहीं, कोई झूठी आस नहीं कि अभी  ले जाएंगे,इसी क्षण ले जाएंगे। हाँ,ले अवश्य जाएँंगे।यह सौ प्रतिशत  निश्चित बात।कुछ दिन तो लगेंगे ही। शत्रु प्रबल है। आक्रमण की  योजना बनेगी।कार्यान्वयन होगा,तभी तो होगी जननी की मुक्ति।और सीता भी आश्वस्त हैं आश्वासन  पाकर।

    "सीता मन भरोस तब भयहु'

          लेकिन आज  जननी आश्वस्त  क्यों नहीं हो पा रही अपने करोड़ों सुतों के होते हुए भी।नैराश्य तिमिर इतना सघन है कि उजास की  कोई भी किरण नहीं फूटती।क्यों लग रहा है उसे कि उसके समर्थ पुत्र  उसकी प्रतिष्ठा, उसके सम्मान की रक्षा में असमर्थ हैं।क्यों न हो निराशा?आज निराशा का स्तर भी दोहरा है।दूर तक जहाँ भी जननी की नजर  जाती है,अँधेरा  ही अँधेरा है।  घर-प्रांगण में बैठी वृद्धा जननी।उपेक्षा और मानसिक प्रताड़ना का शिकार बनी

छातीकादूधपिला-पिला,तन-मन गला दिन-रात एक कर जिन संतानों को पाला,आज वह उन्हीं की आँखों में खटक रही है। संतान विवशता  वश  बूढ़े माता-पिता को ढो रही है।आत्मीयता भरे निःस्वार्थ  संबंधों की इतनीकुरूपता अविश्वसनीय  लगती है।कैसे बँधाएंगे ये कुरूप संबंध माँ को धीर? उर में कसक धारे जननी अधीर बैठी है।  

        नैराश्य का दूसरा  स्तर राष्ट्रव्यापी है।भारत माता उदासीन, मलिन -मना है।तिस पर विडंबना यह कि यहाँ धीर देने वाले पुत्रों की कोई कमी नहीं।खोखले,संवेदनरहित आश्वासनों  की भीड़  एकत्र है उसके चारों ओर।सुंदर,आकर्षक  शब्द जाल।

"तेरे लिए जिएंगे-मरेंगे का भाव प्रकटाते आश्वासन हर 

नगर,प्रांत,राज्य ,संप्रदाय ,जाति ,धर्म  से अहर्निश मिल रहे हैं।भाषाएँ विविध हैं,शैलियाँ अलग हैं। एक दूसरे से बाजी मार ले जाने की होड़ सी लगी है, लेकिन भारत-जननी रंचमात्र भी आश्वस्त नहीं हो पा रही। हो भी कैसे? राक्षसों को मारकर ही तो उसकी रक्षा करेंगे उसके पुत्र। लेकिन पुत्र तो स्वयं  ही असुर हो रहे हैं।कैसा भयानक होता है अपनों द्वारा दिया गया त्रास।

'जाके फटी न पैर बिवाई,सो क्या जाने पीर पराई।"

उसका हर पुत्र स्वयं को उसके सामने आदर्श सिद्ध करना चाहता है।बिना सिर कटाए ही शहीद बनना चाहता है।जननी को भुलाकर सब सब,सब सुविधा,उल्लास  केवल अपने लिए  ही समेट लेना चाहता है।कैसे धीरज दे पाएँगे ये सुत जनना को? "कछुक दिनों की पीर' अब दशकों की प्रतीक्षा बन गई है।क्यों न रोए माँ?भारत माता, जो कितनी सदियों बाद तो स्मित-आनना हुई थी, जब  उसके पवनपुत्र जैसे पुत्रों ने,रक्तदीप जलाकर परतंन्त्रता के अँधेरे को स्वातन्त्र्य विहान में बदला था।।

                मगर अब तो पिछले छह दशकों से देखती आ रही है जननी,कि पूत कपूत बन कर उसका ही ह्रदय विदीर्ण करने पर तुले हैं । भाषा,धर्म,अर्थ,जाति,समुदाय,दलित,शोषित सभी उनके आयुध हैं, जिनका प्रहार वे निरंतर माँ के वक्ष पर कर रहे हैं।जननी के शुभ चिंतको का सारा बुद्धिकौशल आयुध निर्माण में ही तो लग रहा है।और माँ तब भी असुरक्षित है।स्वार्थ,लिप्सा,हिंसा का तांडव करने वाले ,उसके ये पुत्र ही में उसके रूदन का कारण हैं।

                माँ का धानी आँचल अब मटमैला हो गया है।दिनों दिन धूप-ताप से बदरंग हो रहा है।माँ की चिंता  भविष्य में आने वाले बहुत बड़े विनाश के कारण तो नहीं?प्रदूषण की व्यापकता उसका कलेजा सिहरा रही है,थर्रा रही है। नदियों का अमृत जल विष बन रहा है।मलयानिल -सुरभित उसका पर्यावरण अब श्वास लेने योग्य नहीं रहा।पर्वत नंगे-बूचे हो रहे हैं।जंगल दिनोंदिन सिमटते जा रहे हैं।हर कोई दोहन में लगा है,पोषण की किसी को चिंता नहीं।कैसे न रोए माँ?

        अन्नपूर्णा कहलाने वाली माँ की आधी से अधिक संतानें भूखीं-प्यासी बिलख रही हैं। माँ ने तो अपना कोष लुटाने  में कोई कृपणता नहीं की।वह तो आज भी वसुन्धरा है।वस्तुतः आज उसके पुत्र एक -दूसरे से बाँटने में नहीं,छीनने में लगे हैं।एक के शोषण पर दूसरा अपने वैभव की मीनारें चिन रहा है।

        शैशव असमय ही प्रौढ़ हो रहा है।यौवन  की उमंग तरंगायित नहीं होती,निराशा का पर्याय हो गई है।कैसे धीर धरे माँ?उसकी बेटियाँ अब भी  अनेक प्रकार से प्रताड़ित की जा रही हैं।अनेक आँखें  अक्षर ज्ञान से अनजान हैं।सपने  अश्रुओं में बहे जा रहे हैं हैं।माँ की धीर अब  अधीर हो गई है।उसका रूदन फूट निकला है और  उसके समर्थ पुत्रों को उसका विलाप  सुनाई नहीं देता।उसका अश्रुपात अनदेखा हो रहा है।अपने ही उजालों में खोए उसके  ये समर्थ पुत्र, दीपक तले के अँधेरे को जानते हुए भी, उसे दूर करने का कोई प्रयास नहीं कर रहे।"कछुक दिवस जननी धरि धीरा" में कुछ ईमानदारी होती,तो माँ कोआस बँधी रहती।मुक्ति की आस, सर्वांगीण उन्नति की आस।लेकिन अब तो इसी कारा में रहना होगा,हताश।कब तक? यह एक अनुत्तरित प्रश्न।

          लेकिन नहीं,आस तो धरनी होगी।आशा पर आकाश टिका है।उसके सभी पुत्र तो पुरुषार्थ रहित नहीं हैं।कुछ तो हैं ही,जिनके मन-प्राणों में माटी की सौंधी महक महकती है।  जिनकी जड़ें धरती में गहरी जमी हैं।  जिनकी आँखें अंतरिक्ष पर हैं।जिनकी गति मारुति नंदन की गति है। माँ की व्याकुल पुकार पर अर्पित होने वाले पुत्र आज भी हैं।जो माँ का ऋण चुकाना जानते हैं।जो कह रहे हैं निष्ठा से,"धीर धर माँ, कुछ दिन और क्षमा कर अपने अज्ञानी पुत्रों को,शायद ये तेरे भूले-भटके पुत्र शाम ढले,तेरी ममता कीआेट में आसरा पाने,घर लौट आएं।अबोध शिशु भी जब अँधेरे में माँ का स्पर्श पहचान लेता है,तो क्या ये उससे भी नादान हैं? 

         नहीं, इन्हें लौटना ही होगा।अपनी सुखद क्रोड़ में सुला,उजाले की लोरी ,तू ही तो इन्हें सुनाएगी। इसलिए धीर धर माँ ,कुछ दिन और। प्राची पर लालिमा छिटकने ही वाली है।

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वीणा गुप्त 

नई दिल्ली

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