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"हर रात ख़्वाब से जदोजहद
हर शाम की है नीरवता
चलेगा भला कब तलक
इस जीवन की यह विपन्नता
भूलने लगी हूँ अब तो
जिंदगी के सारे फ़लसफ़े
कौन किसकी बाट जोहता
कौन देता है कशमकश
कुछ परिंदे डोलते हैं
ख़्वाबों में आकर बोलते हैं
मन तो बिलखता बना है पँछी
आशय जीवन के तोलते हैं
कैसे कहूँ बिखरना ठीक नहीं
क्यों लग रहे अब मेले हैं
मन के आपाधापी में क्यों
टूटते सारे अब झमेले हैं
गुनती हूँ धुनती हूँ
जगह को तलाशती हूँ
थोड़ी देर और रुक लो
मन को यही समझाती हूँ
मैं कली थी फूल बनी अब
पतझड़ की बारी आई है
जीवन ऐसे ही चलता है
अब चलने की बारी आई है....
★★★★★★
डॉ मधुबाला सिन्हा
मोतिहारी,,चम्पारण