कहानी... छंटता कोहरा


पलाश !!

साधना कृष्ण

  अब हमें कभी नहीं मिलना क्योंकि हालात ने हमें एक दूजे से दूर कर दिया है।यह समाज पुरुषों का हिमायती रहा है ,महिलाओं की छोटी सी गलती को भी यह इस तरह रियेक्ट करता है कि स्त्री हीनता का शिकार हो जाती है,वह जीती है न मरती है बस आजीवन अपराध बोध में घुलती रहती है।इतना बोलकर सारिका अपने घुटनों में सर धँसा कर सुबकने लगी।


दुखी मन से पलाश कुछ क्षण सारिका के थरथराते बदन को देखता रहा।उसकी सिसकियों में आवाज नहीं थी लेकिन कंपित बदन बता रहे थे कि उसके जीवनाकाश पर घटाटोप बदलिया छाई हैं। पलाश सोचता रह गया ।क्या करुँ क्या न करुँ ।सारिका के जीवन में कैसे लाऊँ खुशियों का उजाला ।तत्क्षण उसके मानस में एक विचार कौंधा।वह हौले से सारिका के सर पर हाथ रख उससे सर उठाने का आग्रह करने लगा।


आँसूओं से तर ब तर चेहरा हल्का सा हिला लेकिन उठा नहीं।तो पलाश ने कोशिश करके उस मासूम चेहरे को उठाया और अपनी हथेलियों से कपोलों पर ढलके आँसुओं को पोंछते हुए बोला...तू बुद्धू की तरह रोती है। हर हाल में हमें मुस्कुराना चाहिए तभी हम समस्या का समाधान तलाश पायेंगे वरना हम टूट जायेंगे। कोई मुश्किल मनुष्य के हौसले से बड़ी नहीं होती। पलाश की ये बातें सारिका के व्यथित हृदय पर मरहम का काम की।एक किरण उम्मीद की उसके मानस में कौंध गयी। सहानुभूति के हाथ पीठ पर कोई रख दे तो जीर्ण शीर्ण शरीर में भी ताकत आ जाती है। पलाश के वचन यही तो किए थे।सारिका की आँखों से बहती अविरल अश्रु प्रवाह थम गये थे।


सारिका ने अपनी तमाम वेदनाओं को हृदय पोटली से निकाल पलाश के समक्ष रख दिया। पलाश ने उन वेदनाओं को झार पोंछकर अपने पाँकेट में ठूँसते हुए कहा...आज से तेरे दुख मेरे और मेरे दुख तेरे ।मन के रिश्ते किसी भी सीमाओं में कैद नहीं होते समझी ? तुम तो मेरी आत्मीय हो पहले से। हम अपने सामाजिक दायित्वों का पालन करते हुए एक दूसरे के प्रति भी वफादार रह सकते हैं , एक दूजे को मानसिक संबल देना किसी पूजा से कम नहीं होता सारिका ।इस दुनिया का क्या ...कुछ तो लोग कहेंगे।

             सारिका को यही बात खटक रही थी... बोली...आखिर कैसे ? 

 पलाश ने कहा... तुम स्वयं को इन सवालों से मुक्त करो और देखती जाओ क्या होता है ।मैं ऐसा कोई कदम नहीं उठाऊँगा जिससे तुम्हारे सम्मान को ठेस पहूँचे। 


पलाश का यह वादा सारिका को आश्वस्त कर दिया क्योंकि पहले भी वह कभी अपने वादा से नहीं चुका था।ऐसा लगा कि तमाम कोहरा एक बारगी छँट गये हैं।वह आहिस्ता से पलाश की अंगुलियों को छूकर अपनी सहमति जताई तो पलाश ने कहा...चलो एक बार मुस्कुरा दो। सारिका मुस्कुरा उठी दोनों के मन प्राण में उजाला भर गया।

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