गोविन्द कुमार गुप्ता
एक ऐसी नारी सीता थी,
जो पतिव्रता कहलाती थी,
नारी के जीवन को देखो
जीवन जीकर दिखलाती थी,
था जन्म लिया राजा के यहाँ,
लाडो से पली बढ़ी देखो,
प्रभु को पाने की खातिर थी,
करती थी कठिन तपस्या वो,
मन मे प्रभु को ही चाहा था,
उनकी ही राह निहार रही,
इसलिये स्वयंवर रचा गया
दुष्टों के मान और मर्दन को,
पर राम थे केवल सीता के ,
ओर सीता केवल राम की थी,
एक ऐसी नारी सीता थी ,
जो पतिव्रता कहलाती थी,।।
थी विदा हुई घर से देखो,
चल पड़ी अयोध्या धाम को वो,
आंसूं थे बाबुल के निकले
माता भी पड़ी थी देखो रो,
आकर के अयोध्या धाम में वो,
पाकर के पति रूप राम में वो,
देखो रानी कहलाती थी,
एक ऐसी नारी सीता थी
जो पतिव्रता कहलाती थी,।।
था कठिन समय देखो आया,
वनवास राम को था भाया,
था पंचवटी जाकर देखो,
आवास कुटीर था बनवाया,
रावण को रूप था सीता का,
खुद की कीमत पर था भाया,
हर लाया सीता को लंका,
था राम से अलग है करवाया,
पर रावण थककर चूर हुआ,
रावण की स्वर्ण की लंका भी
सीता को नही सुहाती थी,
एक नारी ऐसी सीता थी,
जो पतिव्रता कहलाती थी,।।
जीती लंका रावण मारा,
सीता को राम मिल गये फिर,
पर कष्ट अभी कुछ वांकी थे,
वनवास आज मिल गया था फिर,
पर यही आज देखो तो सब,
सीता को सीता समझ सको,
राजा कर्तव्य निभा जो सके,
वनवास स्वयं था लिया था जो,
माया रूपी सीता को नारी को
यही सिखाना था,
हो कठिन मार्ग कितना भी हो
तुमको कर्तव्य निभाना था,
इतना न त्याग किया होता,
माता न वह कहलाती,थी,
एक नारी ऐसी सीता थी ,
जो पतिव्रता कहलाती थी,।।