मनु प्रताप सिंह
वीर सदैव ठोकते,महादंगल की ताल।
होगी अब प्रज्ज्वलित, शक्ति की ज्वाल।
तीर वर्षा में वीर तुम,सम्मुख करो ढाल।
अभिमन्यु के भाँति तुम,भेद करो जंजाल।
वीर भोग्या वसुंधरा मात्र,यहीँ भारत की पुकार।
मृत्यु-संकट के मद्यपान से,गूँजे मतवालों की हुँकार।।
वीर पकड़े तलवार हत्थे,छकाते करते दाँत खट्टे।
शत्रु के झूठे दर्प कटे,भीषण रण से पीछे हटे।
हाथों से भालें छूटे,प्रहारों से ढ़ाल टूटे।
मूल्यवान साहस लूटे, अभागे हारे भाग छुटे।
भय,भिड़ंत,घमासान से,फूट पड़ा ज्वार।
रणातुर को भयातुर करती,संचार तरंगित रणहुँकार।
अनहोनी के भावी सन्देशों से,व्याकुल थी विरहणी।
करने विस्मित वाली वीरता को,उफ़ान रही निर्झरिणी।
मृत वीरों से प्रचण्ड युद्ध मे,पट गयी धरिणी।
भयावह युद्ध,वीभत्स देखो,रक्तधारा बनी तरंगिणी।
अग्निप्रवेश में दिखी सती, फिर सोलह सजे श्रंगार।
अस्तित्वहीन सती भी देती,वेश्याओं को रणहुँकार।।
मनु प्रताप सिंह
चींचडौली(काव्यमित्र),खेतड़ी