अपने ही अपनों से कटे जा रहे हैं
मुसीबतों में किसी के न काम आ रहे हैं
लगा है हर कोई बस ख़ुद को ही बचाने
न जानें दिन अब ये कैसे आ रहे हैं
चुनाव न रैली न ही वादे भा रहे हैं
रक्षा के प्रभु से सभी गीत गा रहे हैं
काम नहीं है दूजा चिंता के सिवा कोई
न जाने दिन अब ये कैसे आ रहे हैं
मजदूरों को मुफलिसी के गिद्ध खा रहे हैं
काल कवलित उफ़ बिन कफ़न ही जा रहे हैं
है चारों तरफ़ फैला बेबसी का ही मंजर
न जाने दिन अब ये कैसे आ रहे हैं
जरूरतमंद दवा और न हवा पा रहे हैं
क्या सजा देकर प्रकृति को ख़ुद सजा पा रहे हैं
जा रहे हैं लोग ज्यों लेकर अधूरे सपने
न जाने दिन अब ये कैसे आ रहे हैं
बड़े बेचैन और व्याकुल सब नजर आ रहे हैं
एक दूजे को सब ही ढांढस बंधा रहे हैं
हवाओं में जैसे घुला गया हो ज़हर
न जाने दिन अब ये कैसे आ रहे हैं
पिंकी सिंघल
अध्यापिका
शालीमार बाग
दिल्ली