मन में जगती उमंग नहीं,
जीवन नीरस न रवानी है |
भोंदू बनकर पड़े रहते हैं,
जैसे खून निरा ही पानी है ||
बैठने मात्र से कमर टूटती,
पैदल चलना ही भारी है |
खाने पर बस टूट हैं पडते,
जैसे भूख की लगी बीमारी है ||
गाल हुआ गोलगप्पे जैसा,
आंख चश्मे की आभारी है |
चरर मरर देह फूल करती ,
अभी पेट का बढना जारी है ||
कमर हुई छाती से चौडी,
जांघें हाथी जैसी तैयार हैं |
थुलथुली देह घुटना तोड़े,
बढ़ते वजन से लाचार हैं ||
चटपटे खानों के आगे तो,
भारतीय खाने जैसे बेकार हैं |
तले भुने कुछ खट्टे मीठे,
तीखे जायके मजेदार हैं ||
ऐसी सोच वाले भला कहां ,
भारतीय खाना अपनाएंगे |
विदेशी संस्कृति के पोषक,
अपना वजन खूब बढाएंगे ||
जलवायु वही खाना बदला,
काया तब कैसे ना बदले |
गाल कचौड़ी आँख पकौडी,
क्यों ऐसा करते हैं पगले ||
दूध दही का देश हमारा,
क्यों पेप्सी कोला पीते हैं |
स्वस्थ छरहरी काया के बदले,
क्यों मोटापा लेकर जीते हैं ||
जप तप ज्ञान विज्ञान योग से,
जगत गुरू भारत कहलाया |
खान पान भारतीय छोड़कर,
सज्जनों क्यों विदेशी अपनाया ||
जलवायु अनुसार खाना पीना,
स्वस्थ शरीर तो तब रहता है |
अपनी संस्कृति अपनी भाषा से,
समाज सदा समुन्नत बनता है ||
पशुओं जैसी भक्षण प्रवृति,
जैसे बांडें में घूमते खाते हैं।
यदुवंशी कपड़ों में करके लीपा-पोती,
न सकुचाते न ही लजाते हैं।।
( श्रीकांत यादव )
प्रवक्ता हिंदी
आर सी-326 दीपक विहार
खोड़ा, गाजियाबाद
उ०प्र०!