लघुकथा
डॉ पंकजवासिनी
अनन्या अपने पिता से यही सुन सुन कर बड़ी हुई थी कि खूब पढ़ो! यूनिवर्सिटी टॉप करो और यूनिवर्सिटी में लेक्चरर बन जाओ!!
लेकिन जब भी वह अपने दुधमुंँहे बच्चे को देखती तो उसे यह सपना पूरा करना बड़ा दुष्कर कार्य लगता। कारण अभी वह स्नातक की ही छात्रा थी। पेट चीरकर बच्चा होने के कारण कई तरह की स्वास्थ्य समस्याएंँ भी उसे घेरे हुई थीं। पर उसके हौसले बुलंद थे और संकल्प दृढ़!!
उसने बच्चे को पीठ पर बांँध- बांँध कर काम करना और पढ़ना शुरू कर दिया। क्योंकि घर का और काम तो घरवाले करने के लिए तैयार थे पर बच्चा पकड़ने या संँभालने के लिए कोई तैयार नहीं था। निरंतर संघर्ष करती अनन्या स्नातक के अंतिम वर्ष (पार्ट-3) में 75% अंकों के साथ उत्तीर्ण हो गई !अब उसका आत्मविश्वास काफी बढ़ चुका था ! बच्चे को संँभालना और उसकी देखभाल करने को उसने काम या बोझ समझने की जगह पढ़ाई की थकान के बाद स्वयं को तरोताजा करने का सर्वोत्तम आधार /माध्यम मान लिया था! और उत्साहित होकर उसने परास्नातक(एम. ए.) में अपना नामांकन करवा लिया! बच्चा संभालती, कक्षाएंँ करती एम. ए. के अंतिम वर्ष का 6 माह भी वह पार कर गई और परीक्षा में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने की इच्छा से वह प्रतिदिन 16- 16 घंटे पढ़ने लगी!! उसका बेटा कभी कुर्सी पर उसकी पीठ पीछे लदा या खड़ा रहता तो कभी उसके कमरे में उसके ड्रेसिंग टेबल के सारे सामानों से खेलता या उसे बिखेड़ता रहता। पर अनन्या ने कभी बच्चे पर क्रोध नहीं किया। उसको तरोताजा बनाए रखने के लिए ईश्वर द्वारा दिया गया वह अनमोल उपहार जो था! दिन बीते... परीक्षा का परिणाम निकला :और वह विश्वविद्यालय की रजत पदक विजेता थी! स्वर्ण पदक विजेता से मात्र 3 अंक पीछे!!
और फिर एक दिन ऐसा भी आया जब वह बिहार लोक सेवा आयोग से बिहार विश्वविद्यालय में व्याख्याता पद के लिए चयनित हो गई! स्वर्ग से उसके पिता यह देख उसे आशीषते हुए फूले नहीं समा रहे थे कि उनके सपनों की दुनिया आबाद हो गई थी!
*डॉ पंकजवासिनी*
असिस्टेंट प्रोफेसर
भीमराव अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय