प्रतिभा दुबे
चहुं ओर है एक कोहराम,
जैसे ढल रही हो जिंदगी की शाम
ले रही है सिसकियां ज़िंदगी यहां
मौत की गोद में बैठी है आठों याम
इसे कर्म कहो तुम मनुष्य के
या कहो इसे प्रकृति की मार
है मनमानी का यह परिणाम।।
पहले काटे है जंगल भर भर के
अब ढूंढ रहे हैं ऑक्सीजन को
बचाने को किसी अपने की जान!
निज स्वार्थ के लिए किया
सदेव प्रकृति पर अत्याचार
अब भुगत रहे शमशानों में
ले रहे हैं सिसकियां सभी ,
नहीं रहा अब सुरक्षित इंसान।।
सिसक सिसक के रो रहा
आज होकर बेबस लाचार,
सोचा ना था भविष्य में
होगा मानव जाति का ये हाल
अपनों का साथ भी छूटेगा
जगजीवन से नाता टूटेगा,
ईश्वर ने दी थी जो सुंदरता
उस प्रकृति से जीवन रूठेगा।।
प्रतिभा दुबे
(स्वतंत्र लेखिका)
ग्वालियर मध्य प्रदेश